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जरूरी है पुस्तक मेलों का आयोजन

यात्रा
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एक मित्र ने एक दिन सोते हुए जगा दिया यह पूछ कर कि क्या लखनऊ मे कोई पुस्तक मेला चल रहा है | किताबों का आकर्षण दिमाग मे कुलबुलाने लगा | रविवार को निकल  पडा | ठीक ठाक भीड थी | मुख्य दवार पर सजे धजे द्वारपाल | अच्छा लगा यह देख कर कि पुस्तक प्रेमियों को भी सम्मान दिया जाने लगा है | अंदर का नजारा उम्मीदों से अलग | पुरूषों की अपेक्षा महिलाओं की संख्या ज्यादा | उस पर भी युवतियों की | ज्यादातर अंग्रेजी मे गिटर पिटर करती हुई | स्टाल दर स्टाल घूमने लगे | लेकिन यह क्या, किताबों से ज्यादा खाने पीने का इंतजाम | आइसक्रीम से लेकर चाट-पकोडे तक | किताबों की दुनिया मे भी अंग्रेजी का बोलबाला साफ़ दिखाई दे रहा था | हिन्दी किताबों के नाम पर अधिकांश या तो बच्चों की या फ़िर सफ़लता के मंत्र बताने से लेकर प्रेम करने के तरीके बताने तक की | मोदी जी भी खूब छाये रहे उनके बीच मे किरनबेदी की पुस्तकें भी ताक झांक करती हुई |

स्तरीय हिन्दी साहित्य के स्टाल बहुत ज्यादा नही | ज्यादातर 10% डिस्काउंट के साथ सुनसान बैठे ही नजर आए | दलित साहित्य के एक स्टाल पर तीन किशोरियां दलित कहानियों के पन्ने पलट्ती, आपस मे अंग्रेजी मे गिटर पिटर करती नजर आईं | दिल खुश हुआ देख कर अंग्रेज़ी दा किशोरियां और दलित कहानियां | वाह हिन्दुस्तान क्रांति की दहलीज पर खडा है | लेकिन यह भ्रम ज्यादा देर टिक न सका | सभी ने मुंह बिचकाया और मुझ पर एक नजर डालती हुई बाहर चल दीं मानो क्रांति की मशाल अब मेरे हाथो मे हो |

बहरहाल आगे बढे | ओशो का साहित्य, कहीं बुध्द नजर आए तो कहीं उर्दू की पुस्तकें कद्र्दानों के इंतजार मे धूल खाती दिखाई दीं |यहां संतोष की बात यह रही कि कुछ लोग मंटो व इस्मत चुगताई की कहानियों को पसंद कर रहे थे | इन कहानियों का जादू सर चढ कर बोलता है, इससे मै वाकिफ़ हूं इसलिए यह देखना मेरे लिए एक सुखद एहसास रहा | सोवियत साहित्य हमेशा मुझे प्रिय रहा है | सोवियत रूसी कहानियां पता नहीं क्यों मन को छूती रहीं हैं जो मेरे पास हैं उन्हें बार बार पढ्ता हूं | लेकिन ऐसा कोई स्टाल नजर नही आया | मन थोडा दुखी हुआ | अचानक एक जगह नजर पडी लिखा था 30 रूपये मे हिन्दी पुस्तकें | बहुत सी अच्छी पुस्तकें नजर आईं | यह सस्ता संस्करण मन को भा गया और टूट पडा जितना बटोर सकता था, बटोर लिया |

लौट्ने का समय हो गया था | मेले की एक उपलब्धी मेरे लिए जरूर रही जिस पुस्तक को कभी एक महिला मित्र ने उधार मे पढ्ने को दी थी, कान मे यह फ़ुसफ़ुसाते हुऐ कि मैं किसी को यह न बताऊं कि यह उसने दी है ( आप समझ गये होगें ऐसा क्यों ) | अब वह पुस्तक मेरे हाथों मे थी | यह है शोहरत की बुलंदियों को छूने वाला ब्लादीमीर नाबोकोव का नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास “ लोलिता “ | कई देशो मे इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था |भारत मे भी इस पर मुकदमा चला था अंतत: जीत कलम की हुई |  बेहद विवादास्पद | इस पर बाद मे बहुचर्चित फ़िल्म इसी नाम से बनी थी | बारह-तेरह वर्षीय नाबालिक लड्की की यौन क्रिडाओं व वासना से पीडित एक प्रोफ़ेसर की हैरत कर देने वाली कहानी, कोमल मानवीय भावनाओं का एक अविस्मरणीय दस्तावेज |

अब इंतजार है अगले पुस्तक मेले का | कभी कभी सोचता हूं कि दूरदर्शन क्रांति के बीच पैदा होने वाली पीढी क्या कभी किताबों के जादू को समझ् सकेगी |अस्सी के दशक से बहुत कुछ बदला है | जिंदगी मे नई चीजें जुडी हैं और कुछ तो ऐसी जिन्होने देखने समझ्ने का नजरिया ही बदल दिया है | लेकिन इन सब के बीच किताबों का दूर होना एक दुखद एहसास जरूर देता है | यह दौर कब खत्म होगा पता नही लेकिन इन पुस्तक मेलों का आयोजन और यहां लोगों का आना एक उम्मीद जरूर जगाता है |

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