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सेना प्रमुख की चेतावनी बनाम राजनीतिक संकल्प

यात्रा
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थल सेना प्रमुख जनरल दलवीर सिंह सुहाग ने पाकिस्तान को चेतावनी दी है कि अगर भारतीय जवान के सिर काटने जैसी घटना दोहराई तो उसका तुरंत जवाब दिया जायेगा | भारतीय सेना की तरफ़ से ऐसी कठोर चेतावनी इधर हाल के वर्षों में शायद ही दी गई हो | अगर कुछ कहा गया तो उसमें निश्चय की कमी साफ़ झलकती रही | लेकिन इस बार स्वर और अंदाज दोनो अलग हैं | संभवत: यह बदले हुए सत्ता समीकरणों का ही परिणाम है |

इस चेतावनी से करोडों भारतीयों का सर गर्व से ऊपर उठना स्वाभाविक ही है | दर-असल पडोसी देश की करतूतों से देश के अंदर एक ऐसी भावना जाग्रत हो चुकी है जिसमें यह माना जाने लगा है कि बिना सख्ती और ठोस कार्यवाही के यह सब रूकने वाला नहीं | इसलिए जब जनरल सुहाग जैसे सेना प्रमुख इस तरह की बात करते हैं तो लोगों का भरोसा जगता है |

दर-असल आतंकवाद का मामला हो या फ़िर सीमा पर पाकिस्तान व चीन की तरफ़ से होने वाली घुसपैठ, इससे देश की सुरक्षा पर कुछ सवाल उठते रहे हैं | पिछ्ली कांग्रेस सरकार के अंतिम दिनों मे जिस तरह चीन ने कुछ क्षेत्रों में गंभीर घुसपैठ की घटनाओं को अंजाम दिया उससे देश के लोगों मे एक असुरक्षा की भावना जाग्रत हुई और इन्हीं दिनों पाकिस्तानी सैनिकों ने लश्कर-ए-तैबा के सहयोग से उरी सेक्टर में कुछ सैनिकों की हत्या कर दी थी | भारत की ओर से सिर्फ़ एक कमजोर विरोध दर्ज कर चुप्पी साध ली गई | सरकार के इस रवैये से भी लोग आहत हुए और उनके स्वाभिमान को चोट लगी |

दर-असल इस तरह की घटनाओं की पृष्ठभूमि में जाकर पडताल करें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है | इस तस्वीर में एक तरफ़ तो मजबूत भारतीय सेना के मजबूत इरादे हैं तो दूसरी तरफ़ कमजोर राजनीतिक नेतृत्व | राजनीतिक स्तर पर लिए गये ढुलमुल कमजोर फ़ैसलों ने कई बार भारतीय सेना को बडी लाचारगी की स्थिति में भी खडा किया है | आज भी कमोवेश यही स्थिति है | 1971 के भारत-पाक युध्द को अपवाद्स्वरूप छोड दें तो अधिकांश अवसरों पर देश के कमजोर नेतृत्व के कमजोर फ़ैसलों ने देश का नुकसान ही किया है |

1962 का भारत-चीन युध्द इसका एक अच्छा उदाहरण है | नेहरू जी की अदूरदर्शिता व गलत फ़ैसलों का खामियाजा पूरे देश को शर्मनाक हार के रूप मे देखना पडा था | सच तो यह है कि तत्कालिन नेहरू सरकार के ढुलमुल रवैये ने ही चीन को भारत में आक्र्मण करने का हौंसला दिया था | यही नहीं, चीन की ताकत से भयभीत नेहरू जी ने तत्कालीन सेना प्रमुखों की सलाह को न मान कर कोढ पर खाज पैदा करने का काम भी किया |

जानकार यह भी जानते हैं कि नेहरू जी ने अपनी वायु सेना को आक्र्मण की इजाजत न देकर युध्द मे अपनी हार को भी न्योता दिया | जबकि आकाश मे भारतीय वायु सेना का पलडा कहीं से कमजोर नहीं था | जानकार तो यह भी मानते हैं कि अगर नेहरू जी ने यह गलती न की होती तो शायद युध्द की कहानी कुछ अलग होती |

यही नही, उत्तर पूर्व के दुर्गम भौगोलिक स्थितियों मे लड रही सुविधाविहीन भारतीय सेना की कमान ऐसे जनरल के हाथों मे सौंप दी जिन्हें आगे लडने का खास अनुभव ही नही था | इस फ़ैसले पर बाद मे बहुत से सेना के जनरलों ने पक्षपात करने का आरोप भी नेहरू जी पर लगाया था |

भारत –चीन युध्द के दस्तावेजों व तत्कालिन सेना प्रमुखों की लिखी किताबों से यह स्पष्ट रूप से पता चलता है कि 1962 का युध्द राजनीतिक भूलों व नेहरू जी के गलत फ़ैसलों के लिए याद रखा जायेगा |

इसके ठीक विपरीत 1971 में भारत-पाक युध्द मे भारत की शानदार जीत के पीछे इंदिरा जी के नेतृत्व की एक बहुत बडी भूमिका रही है | तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान ( बांग्ला देश ) मे किए जा रहे जुल्मों से जिस तरह वहां से भाग कर लोग शरणार्थी रूप में भारत आने लगे थे उसके खतरे को उन्होने बखूबी महसूस किया| बिना समय गंवाये अपने तीनों सेना के प्रमुखों से मिल कर इंदिरा जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ न सिर्फ़ हमले की इजाजत दी अपितु फ़ैसले पर मजबूती से खडी भी रहीं |

यह युध्द अगर एक तरफ़ भारतीय सेना की वीरता के लिए याद किया जाता है तो दूसरी तरफ़ इंदिरा जी की राजनीतिक द्र्ण इच्छाशक्ति व कठोर तथा सही फ़ैसलों के लिए भी | इस ऐतिहासिक युध्द मे भारत विश्व मानचित्र मे एक ताकत के रूप में उभर कर सामने आया था | दुनिया के तमाम देशों ने न सिर्फ़ भारतीय सेना की वीरता का लोहा माना था अपितु इंदिरा जी के राजनैतिक कौशल व दूरदर्शिता की भी प्रशंसा की थी | यह जीत तभी संभव हो सकी जब सेना को भरपूर राजनीतिक सहयोग व समर्थन मिला |

इस ऐतिहासिक जीत के बाद कुछ वर्षों की शांति रही और फ़िर शुरू हुआ आतंकवाद का सिलसिला | खालिस्तान की मांग से उपजे आतंकवाद पर तो येन केन जीत हासिल कर ली गई लेकिन इंदिरा जी की शहादत के बाद के कालखंड में देश राजनीतिक रूप से इन खतरों से लडने में सक्षम नही दिखाई देता | राजनीतिक उठा-पटक, भ्र्ष्टाचार और कमजोर नेतृत्व ने आग मे घी का काम किया | आतंकवाद की घटनाओं मे बढोतरी का एक बडा कारण कमजोर राजनीतिक इच्छा शक्ति का होना भी रहा है |

भारतीय सेना के बेमिसाल शौर्य व कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का एक और उदाहरण है करगिल युध्द जिसे अपनी कमजोरी छिपाने के लिए महिमा मंडित किया गया |

कारगिल युध्द अपनी ही जमीन और चौकियां दोबारा हासिल करने कि लिए लडा गया था | पूरी लडाई अपनी ही जमीन पर लडी गई | सैकडों जवानों की आहुती देनी पडी | यही नही, सफ़ेद कबूतर उडाने वाले और अहिंसा का जप करने वाले भारत ने पाकिस्तान की थल और वायु सीमा मे एक इन्च भी अंदर प्रवेश नही किया था | जबकि रणनीतिक कारणों से प्रभावी आक्रमण के लिए सेना को यह जरूरत महसूस हो रही थी | फ़िर भी इसकी हिम्मत तत्कालीन प्रधानमंत्री न जुटा सके थे | सात लाख सेना को सीमारेखा पर आक्र्मण के लिए तैयार रखने के बाबजूद साहसी फ़ैसला सरकार न ले सकी थी |
इसका परिणाम यह हुआ कि लडाई लंबी चली और ज्यादा भारतीय सैनिकों को देश के लिए शहीद होना पडा | यह कडवा सच है | इस तरह भारी कीमत चुका कर अपनी ही जमीन हासिल कर , अपनी पीठ थपथपाना समझ मे कभी नही आया |

यानी कुल मिला कर देखें तो भारतीय सेना कभी भी कमजोर नही रही बल्कि कमजोर राजनीतिक नेतृत्व और कमजोर सरकारों ने उस पर भी लगाम लगाये रखी | कई मोडों पर तो सेना की यह लाचारगी साफ़ झलकती रही है | अब जब सेना प्रमुख पाकिस्तान को यह कठोर चेतावनी दे रहे हैं तो कुछ उम्मीदें जगना स्वाभाविक ही है लेकिन शायद इससे ज्यादा जरूरी है राजनीतिक स्तर पर कठोरता व मजबूत संकल्प की | इसके बिना सेना प्रमुख की इस चेतावनी का कोई मतलब नही रह जायेगा |

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