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धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले कश्मीर का यह दुर्भाग्य ही है कि कुछ के दिलो-दिमाग मे उसकी पहचान मात्र एक विवादास्पद धारा से लिपटे प्रदेश के रूप मे है
तो किसी के लिए वह सिर्फ़ आतंकवाद का पर्याय | सैलानियों के लिए महज एक सुंदर घाटी | राजनेताओं के लिए सियासत की एक सरहद | लेकिन कश्मीर सिर्फ़ इतना भर नही है | यह कभी उन वाशिंदों का था जो अब वहां नही रहे | उनकी यादों का कश्मीर बिल्कुल जुदा है |
अपने खूबसूरत घरोंदों को छोडने व पलायन करने की पीडा इस वादी की एक अनकही कहानी है | केंद्रीय साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कवि मोतीलाल साकी ने अपनी इस कविता मे उस दर्द को बयां किया है | इस कविता को कन्हैया लाल नंदन जी ने संडे मेल के 4-18 अक्तूबर 1992 के अंक मे प्रकाशित किया था | संयोग से इस अंक मे मेरा भी एक लेख प्रकाशित हुआ था और इसलिए यह अंक सुरक्षित रह गया | आज के हुक्मरान इस दर्द को कभी समझ सकेंगे कि नही, पता नही |
मेरे मकान को ऊपर से नीचे तक
चूहों ने कुरेद डाला है,
नींव पोली हो चुकी है इसकी बरसों से,
पलस्तर भी गिर रहा है
तड़-तड़ , तड़-तड़
छ्त जैसे लटकने लगी है,
देखने वाले कर रहे हैं आश्चर्य,
यह मकान आखिर टिका है तो किस पर,
मौका मिला जिन्हें,
वे निकल भागे किधर किस ओर,
यह उनके सगे भी नही जानते,
सुना है कुछ रेत के टीलों पर जाकर बस गये,
कुछ जानें बचाने को टीलों मे चले गये,
कुछ झील-सरोवरों, बागों-चिनारों को छोड,
चल दिए बियावानों की ओर,
बेघर तो हुए पर इज्जत –जान बचाई अपनी,
भूल गये वे- कौन थे, कहां से आये थे,
इस मकान मे रह गये हैं अब कुछ ही लोग,
भाग्य को कोसते, रो-रो कर दिन गुजारते,
जाने कब सिर पर आ गिरेगी यह लटकती छ्त,
लाचार हैं, मजबूर हैं नहीं है कोई उपाय,
जिंदगी के दिन गुजार तो रहे हैं
पर
नजरें मरघट पर लगी हुई हैं |
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