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हताशा और अवसाद का दंश झेलते बच्चे

यात्रा
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अभी हाल में हमने नेहरू जी को बडी शिद्दत से याद किया | नेहरू यानी जिन्हें उनकी राजनीतिक विचारधारा से ज्यादा पंचशील, गुलाब और बच्चों के लिए जाना जाता है | लेकिन शायद उनकी विरासत की छीना-झपटी के चलते हम बच्चों की दुनिया को करीब से देखने और समझने का अवसर गंवा बैठे | सत्ता के गलियारों से निकले नारे, घोषणाएं और वादे जल्द ही राजनीति के गर्भ मे विलीन हो गये | लेकिन ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हुआ | देश का दुर्भाग्य रहा है कि इधर कुछ वर्षों से पूरे जनमानस का राजनीतिकरण बखूबी से हुआ है और मीडिया से लेकर आम आदमी तक की सोच मे राजनीति रच बस गई है | समाज से जुडे सवाल कहीं पीछे छूट गये हैं | राजनीति का नशा इतना गहरा है कि इन सवालों पर गंभीरता और गहराई से सोचने की जहमत कोई नहीं उठाना चाहता |

जब पूरा देश अपने अपने तरीके से मासूम सपनों में रंग भरने की कवायद मे लगा था, लगभग उसी समय राजस्थान के एक स्कूल में एक बच्चे ने अपने अध्यापकों की प्रताडना से तंग आकर अपनी जिंदगी को अलविदा कह दिया | थोडी चर्चा हुई, शोर हुआ और फ़िर दूसरे ही दिन राजनीति की गरमा-गर्म खबरों की नई खेप ने उस खबर को हाशिए पर डाल दिया | किसी बच्चे की आत्महत्या की यह पहली खबर नहीं है | रोज ही देश के किसी न किसी कोने में कोई न कोई बच्चा इस तरह की प्रताडना का शिकार बनता है | लेकिन चंद दिनों बाद सबकुछ भुला दिया जाता है |

अगर हम राजनीतिक खबरों की दुनिया से बाहर निकल थोडा गौर करें तो पता चलता है कि 2012 के सुस्त सरकारी आंकडों में 14 वर्ष तक की उम्र में कुल 2738 बच्चों ने आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त की | इसमें 1353 लडकियां और 1385 लडके सम्मलित हैं | इतनी आत्म्हत्याओं का कोई न कोई कारण होना भी स्वाभाविक है | ज्ञात कारणों पर नजर डाले तो पारिवारिक कारणों से कुल 354 व परीक्षा मे असफ़ल हो जाने के कारण 226 बच्चों ने मृत्य को गले लगाया | यहां गौरत्लब यह भी है कि 560 बाल आत्महत्याओं मे कोई कारण ज्ञात न हो सका यानी इन बच्चों ने आत्महत्य जैसा कदम क्यों उठाया, कभी पता न चल सका |

दर-असल यही वह मौतें हैं जिनमें या तो स्कूल बच्चे के परिसर की दुनिया जिम्मेदार है या फ़िर स्वंय बच्चे के घर के अंदर का दमघोटू माहौल जहां उससे उसकी उम्र से कहीं ज्यादा की अपेक्षाएं की जाती रही हैं | स्कूल व पारिवारिक परिवेश से जुडी यह आत्महत्याएं ही अज्ञात कारणों के अंधेरों में धकेल दी जाती हैं और फ़िर इन पर क्भी कोई बहस नहीं होती |

दर-असल विकास की सीढीयां चढ्ते हुए इस देश मे महत्वाकाक्षाओं की उडानों का ऐसा विस्तार भी हुआ है जिसके दुष्परिणामों का दंश बच्चे भुगतने के लिए मानो अभिशप्त हैं | अभिभावकों की जीवन में ऊचे पायदान मे खडे होने की लालसा उनके ही बच्चों के बचपन को डसने लगी है, इससे वह बेखबर हैं | वह नहीं जान पा रहे हैं कि अपने बच्चों से किसी भी कीमत पर उपलब्धियों की अपेक्षाएं उन्हें हताशा और अवसाद के अंधेरों की तरफ़ खींच रही हैं | असमय मृत्यु का ग्रास बनते बच्चों के बचपन का यह एक बहुत बडा कारण है |

एक तरफ़ माता पिता की आकाश छूती महत्वाकाक्षाएं और सपने हैं जिनका दवाब यह बच्चे पूरी खामोशी से येन केन झेल रहे हैं तो दूसरी तरफ़ स्कूली अनुशासन व स्टेट्स का पाखंड जहां उन्हें ख्र्रा उतरना है | पढाई संबधित थोडी सी चूक अध्यापकों के व्यवहार को इस सीमा तक अमानवीय बना देती है कि बच्चा भय और अवसाद के गहरे समुद्र में डूबने उतराने लगता है | प्र्ताडना और मानसिक दवाब जब सारी सीमाएं लाघं जाता है तो वह एक दिन वह कर बैठ्ता है जो दूसरे दिन के अखबार की सुर्खियां बनता है | और फ़िर चंद समय के लिए संवेदनाओं की लहर पैदा कर अनुत्तरित सवाल पीछा छोड जाता है | इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है | समाज व शासन की संवेदना इतनी सतही होती है कि भविष्य मे होने वाली इन आत्महत्याओं को नही रोक पाती |

यहां गौरतलब यह भी है कि माता-पिता की आकाश छूती महत्वाकाक्षाओं तथा आधुनिक स्कूल संस्कृति के दोहरे दवाब के अलावा भी उसकी जिंदगी मे बदले सामाजिक परिवेश ने कई और दुखों का इजाफ़ा किया है | नैतिक मूल्यों की गिरावट से जहां एक तरफ़ उसकी मासूम दुनिया मे यौन शोषण का गहराता अंधेरा है तो वहीं दूसरी तरफ़ आर्थिक उन्नति की दौड ने लाखों नौनिहालों के बचपन को कारखानों, ढाबों और फ़ुटपाथों पर गिरवी रख दिया है | यानी उसकी मासूम दुनिया के चहुं ओर खतरों का घेरा क्सता जा रहा है |

लेकिन इन सबके बाबजूद दुखद तो यह है कि इन खतरों की गंभीरता को अभी समझा जाना शेष है | घट्ना विशेष के संदर्भ में टुकडों में मह्सूस की जाने वाली संवेदना से कोई विशेष हित नही होने वाला | ह्में पूरी शिद्द्त से बच्चों की दुनिया के दुखों और खतरों को स्मझना होगा और उन सभी रास्तों को बंद करना होगा जो उसे अंधेरे की तरफ़ बरबस खींच ले जाते हैं |

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