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सतलोक आश्रम में संत रामपाल की गिरफ्तारी को लेकर जो हुआ उसने एक बार फिर 1984 के आपरेशन ब्लू स्टार की याद दिला दी जिसमें भिंडरांवाले व उनके समर्थकों को मंदिर से बाहर निकालने के लिए तत्कालीन सरकार को पूरी ताकत झोंकनी पडी थी । आस्था और राजनीति के घालमेल का यह एक अकेला उदाहरण नहीं है । 6 दिसम्बर 1982 बाबरी मस्जिद विध्वंस को लोग अभी तक भूले नहीं हैं ।
आपरेशन ब्लू स्टार को लेकर सरकार ने जो श्वेत पत्र जारी किया था उसके अनुसार उसमें 83 सैनिक मारे गये थे और 249 घायल हुए थे । 493 चरम्पंथी या आम नागरिक भी मौत के शिकार बने । वहीं बाबरी मस्जिद घटना के बाद भडकी हिंसा में विशेष रूप से सूरत, अहमदाबाद, कानपुर व दिल्ली आदि शहरों मे 2000 से ज्यादा लोग मारे गये थे । इन दो बडी घटनाओं का गवाह रहा है हमारा लोकतंत्र । समय समय पर होने वाली छोटी बडी घटनाओं की तो एक लंबी फेहरिस्त है ।
इन घटनाओं की पृष्ठभूमि में जायें तो धर्म–आस्था और राजनीति का घालमेल ही दिखाई देता है । हरियाणा मे संत रामपाल के आश्रम सतलोक मे हुई हिंसा इन्हीं घटनाओं की एक और कडी है । इस बात पर अभी तक संतोष किया जा सकता है कि इस घटना मे ज्यादा जानमाल का नुकसान नहीं हुआ है । लेकिन इसने भविष्य के लिए एक खतरे की घंटी जरूर बजा दी है ।
दर–असल इधर कुछ वर्षों से राजनीति और धर्म व आस्था को लेकर जो विवाद व संघर्ष चलते रहे हैं, यह घटना उसकी दुखद परिणति ही है । बात चाहे साईं–शंकराचार्य विवाद की हो या लव जिहाद की या फिर संत रामपाल के भक्तों की , सभी की पृष्ठभूमि मे राजनीति की एक अहम भूमिका रही है और दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि आस्था के सवाल पर इन सामाजिक विवादों का राजनीति के घालमेल से एक खतरनाक चेहरा बनने लगा है ।
कहते हैं धर्म से बडी राजनीति कोई नहीं होती और राजनीति से बडा धर्म कुछ नहीं होता और शायद यही कारण है कि तमाम राजनीतिक दल धर्मगुरूओं की चौखट पर पहुंचते हैं और उनका समर्थन लेने की पुरजोर कोशिश करते हैं । अब तो उनके समर्थन व सहयोग के लिए धर्म ससंद जैसे आयोजन भी किए जाने लगे हैं । दर–असल धर्म और राजनीति का यह मिलन ही इन घटनाओं की पृष्ठभूमि को तैयार करता है । इससे ही जन्म लेती है धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरता और धर्मगुरूओं दवारा भी राजनीति मे अपना रूतबा बनाने की चुहा दौड ।
इस संदर्भ में डा. राममनोहर लोहिया जी के विचारों को जानने व समझने का प्रयास करें तो आज के दौर की राजनीति मे उनके विचार कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं । उन्होने कहा था ” धर्म और राजनीति के दायरे अलग अलग हैं पर दोनों की जडें एक हैं । धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म है । धर्म का काम है अच्छाई करे और उसकी स्तुति करे । राजनीति का काम है बुराई से लडे और उसकी निंदा करे । जब धर्म अच्छाई न करे केवल स्तुति भर करता है तो वह निष्प्राण हो जाता है । और राजनीति जब बुराई से लडती नहीं, केवल निंदा भर करती है तो वह कलही हो जाती है । इसलिए आवश्यक है कि धर्म और राजनीति के मूल तत्व समझ मे आ जाए । धर्म और राजनीति का अविवेकी मिलन दोनो को भ्र्ष्ट कर देता है । फिर भी जरूरी है कि धर्म और राजनीति एक दूसरे से संपर्क न तोडें, मर्यादा निभाते रहें । “
लेकिन वोट बैंक की राजनीति ने इन मर्यादाओं को ताक पर रख कर जिस राजनीतिक शैली को जन्म दिया है यह घटनाएं उसी का परिणाम हैं । आज स्थिति यह है कि एक तरफ राजनेता अपने वोट बैंक के लिए धर्म और आस्था से जुडे धर्म गुरूओं की चौखट पर जाकर सजदा कर रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ यह धर्म गुरू भी राजनीतिक गलियारों मे अपना रूतबा कायम करने की कोशिश मे हैं । धर्म को राजनीति का संरक्षण और राजनीति दवारा धर्म का इस्तेमाल इन स्थितियों को जन्म दे रहा है । यह अल्पकालिक हित साधने की सोच देश के हित मे तो कतई नहीं है । अब अगर इस विकृति से समाज, राजनीति व देश को मुक्त रखना है तो धर्म – आस्था और राजनीति सभी को अपनी मर्यादाओं का निर्वाह करना ही होगा । इनका अविवेकी घालमेल पूरे सामाजिक व्यवस्था को ही छिन्न भिन्न कर देगा ।
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