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ऐसा प्रतीत होता है कि बिहार एक बार फिर वहीं लौट रहा है जहां से चला था । राजनीति की महत्वाकांक्षाओं ने पिछ्डेपन का पर्याय समझे जाने वाले इस राज्य का कम नुकसान नही किया है । बरसों बरस तक जातीय राजनीति के दलदल मे गहरे धंसे रहंने के बाद इधर कुछ उम्मीदों की किरणें नजर आने लगी थीं लेकिन शायद बिहार के माथे पर राजनीतिक अस्थिरता की रेखाएं एक स्थायी भाव बन कर रह गयी हैं । 20 फरबरी को बिहार के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी ने मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी को बहुमत सिध्द करने को कहा है ।
यहां सवाल यह महत्वपूर्ण नहीं कि जीतनराम मांझी अपना बहुमत सिध्द कर पायेंगे या नही बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि क्या बिहार एक बार फिर उसी भंवर मे फंसने जा रहा है जहां से निकलने की वह भरसक कोशिशें कई दशकों से करता रहा है ।
दर–असल यह इस राज्य की त्रासदी रही है कि एक तरफ यह पिछ्डेपन का प्रतीक रहा है तो दूसरी तरफ जातीयता की नर्सरी के रूप मे भी देखा जाता रहा है। जब जब पिछ्डेपन और जातीयता की बात आती है, बिहार का ही चेहरा सामने आता है । यहां के सामाजिक ताने बाने का लाभ उठा राजनेताओं ने भी अपनी राजनीति की धूरी जातीय राजनीति को ही बनाये रखा है । यहां की जातियों के समीकरणों को साधने का मतलब सत्ता की चाभी का हाथ मे आ जाना है और इसीलिए यहां विकास हमेशा हाशिए पर पडा रहा ।
90 के दशक तक यहां की राजनीति जातीय समीकरणों से ही संचालित होती रही । विकास की बात हमेशा कोसों दूर रही । मुख्यमंत्रियों का ज्यादा समय जातीय समीकरणों को ही साधने मे जाया होता रहा । लेकिन 90 के दशक मे अयोध्या मुद्दे ने पूरे देश मे एक नई राजनैतिक हलचल पैदा कर दी और बिहार भी इससे अछूता नही रहा । लेकिन हिन्दुत्व की यह भगवा लहर यहां बहुत दिनों तक अपनी धार कायम न रख सकी । जल्द ही मंडल के अमोघ अस्त्र ने राजनीति की दिशा को एक नया मोड दिया । पिछ्डी जातियां सत्ता मे भागीदारी के लिए मुखर रूपे से सामने आने लगीं और इन्होने अपने को लामबंद करना शुरू किया । यही वह समय था जब लालू का जादू सर चढ कर बोलने लगा ।
लेकिन बिहार की भाग्यरेखा मे कुछ अच्छे दिन लिखे थे । नीतीश कुमार ने 2005 मे लालू यादव के जातीय समीकरणों को ध्वस्त करते हुए एक नया अध्याय लिखा । यहीं से लगने लगा था कि बिहार अब शायद इस कुचक्र से मुक्त हो सकेगा। विकास और खुशहाली के रास्ते दिखाई देने लगे थे । लेकिन भाग्य ने एक बार फिर पलटा खाया और नीतीश की राजनीतिक भूलों से यह राज्य एक बार फिर भंवर मे फंसता दिखाई दे रहा है । भाजपा से रिश्ते तोडने की गलती के बाद मांझी को अपने हित मे मुख्यमंत्री बनाना एक भारी राजनीतिक भूल साबित हुई । मेरी बिल्ली और मुझसे म्याऊ समझ अब एक बार फिर नीतिश सत्ता की डोर अपने हाथों मे लेने को आतुर दिखाई देने लगे हैं ।
अब तो यह समय ही बतायेगा कि बिहार की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा लेकिन इतना जरूर है कि नीतीश की महत्वाकांक्षाओं ने बिहार को फिर एक बार चौराहे मे ला खडा किया है । अब एक बार फिर वहां दलित–महादलित की राजनीति परवान चढने लगी है । भाजपा को अपनी मजबूत जमीन दिखाई दे रही है । कुछ समय बाद राज्य मे चुनाव होने हैं और सभी राजनीतिक दल अपने अपने तरीके से बिहार को मथने की कोशिश करेंगे । लेकिन इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विकास के पथ पर चलते चलते यह यकायक फिर उस त्रासदी को भोगने के लिए अभिशप्त हो गया जिससे वह मुक्ति की जिद्दोजहद कर रहा था । इस त्रासदी के वाहक बने नीतीश कुमार जिनसे ऐसी उम्मीद कतई नही थी ।
बहरहाल अब होने वाले चुनाव मे बिहार की जनता को अपना फैसला लेना है। उसे अपने हित मे एक परिपक्व सोच को वोट के माध्यम से अभिव्यक्त करना ही होगा और उस रास्ते पर अपनी समर्थन की मुहर लगानी होगी जो उनके राज्य को जातीय राजनीति के दंश से मुक्त कर विकास की ओर अग्रसर करे ।
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