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लोकजीवन की रसधारा है होली

यात्रा
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जब खेतों में सरसों के रंग बिखरने लगे हों , पीले फूलों पर तितलियां और भौरें मंडराने लगे हों , अमराई बौराई बौराई सी लगने लगी हो , टेसू धहकने लगे हों , हवा के अलमस्त झोके मदहोस करने लगे हों , युवा मन कुलांचे भरने लगे तो समझिये फागुन आ गया ।

फागुन चाहे-अनचाहे, अनायास-अकस्मात हमेशा आता है लेकिन चुपके से नही बल्कि पूरी सजधज के साथ, अपने इन्द्रधनुषी रंगों को बिखेरता हुआ और देखते देखते छा जाता है मन मस्तिष्क में , सारी वर्जनाओं की अनदेखी करते हुए । फागुन का यह चरित्र सदियों से ऐसा ही है । यह कभी नही बदला और न ही कभी बदलेगा ।चारों दिशाओं को मदहोस कर देने वाले इस फागुन से जुड़ी है लोक उत्सव की हमारी पुरातन परंपरा ।

फाग और गीतों का चरम ही तो है होली । यही तो एक ऐसा त्योहार है जिसमें सदियों से पाली पोसी नैतिकता एक ही झटके में टूट कर बिखर जाती है और शेष रह जाता है हमारा आदिमपन जहां न कोई कानून है न सामाजिक वर्जनाएं ।

आदिमपन के उल्लास को पा लेने की होड़ में हम सराबोर हो जाते हैं रंगों में । सच पूछिए तो सभी को एक दिन का स्वर्ग उपलब्धकराता है यह त्योहार । इसीलिए तो त्योहारों त्योहार कहा गया है होली को ।

उम्र और रिस्तों की सीमाओं से परे है होली । तभी तो कहा गया है “ भर फागुन बुढ़वा देवर लागे “ । साल के बाकी महीने तो उम्र व रिस्तों के बंधनों का एहसास कराते ही हैं । यही तो होली है जो किसी परिचय की मोहताज नहीं ।हाथों में रंग हो और सामने किसी का चेहरा तो समझाने बुझाने का कोई मतलब नही । होली ही तो है जिसमे बात बात पर अंगिया और चोली याद आ जाती है । वह पिचकारी की धार ही क्या जो अंगिया के पार तक न पहुंच सके ।

यही वह त्योहार है जिसमें वह सभी बातें जो कभी कही और लिखी नही जा सकती , होली के नाम पर सार्वजनिक हो जाती हैं । इस दिन बड़े बूढे, जवान बच्चे सभी बिना किसी शर्म और लोकलाज के बड़े चाव सुनते और सुनाते हैं । इस दिन सभी नैतिक व्यवस्थाएं खुले आम तोड़ी जाती हैं । कबीर को गाली पुराण का रचयिता मानते हुऐ प्रत्येक गाली ‘ बोल कबीरा ‘ से शुरू की जाती है ।

आज बेशक गालियों के सरताज कबीर मान लिए गये हो परन्तु फागुन व होली में अश्लीलता की परंपरा इससे भी कहीं पुरानी है । महाभारत के शांति पर्व की एक कथा के अनुसार महाभारत युध्द के बाद जब युधिष्टर ने सत्ता संभाली तो उन्होने अपनी प्रजा को होली के दिन यह छूट दी कि कोई भी किसी से भी हंसी मजाक , छेड़छाड़ कर सकता है ।इससे उसके अंदर की सारी कुंठाएं दूर हो जायेंगी और वह वर्ष भर एक अच्छे चरित्र का निर्वाह कर सकेगा ।

अश्लीलता के संदर्भ में एक पौराणिक कथा भी है । इस कथा के अनुसार दैत्यों के कुलगुरू शुक्राचार्य की कन्या जिसका नाम ढुंढिका था बहुत ही कामांध थी । उसकी कामवासना इतनी प्रबल थी कि वह हजारों पुरूषों से संबध स्थापित करने के पश्चात भी तृप्त न हुई । हजारों पुरूषों को उसने अपमानजनक ढंग से यातनाएं दी क्यों कि वह उसे कामतृप्ति न दिला सके थे । उसकी इस कामपिपासा को देखते पुरूष उससे भयभीत रहने लगे ।

काम भावना के वशीभूत उसके कृत्यों से सारा समाज शर्मसार होने लगा । तब सभी ने मिल कर उसका ऐसा बहिष्कार किया कि वह हार कर भाग खड़ी हुई । इस विजय की याद में होली को ‘ कामपर्व ‘ उत्सव के रूप मे मनाने का निर्णय लिया गया । तभी से इस लोकपर्व में अश्लीलता का भी समावेश हो गया । अश्लील गालियों की परंपरा तभी से शुरू मानी जाती है ।

होलिकोत्सव के संदर्भ में यह पौराणिक कथा कितनी कितनी सच है , कहना मुश्किल है परन्तु यह जरूरी है कि हास्य व छेड़छाड़ एक सीमा के अंदर ही हो । होली के बहाने हास्य व मजाक का जो रूप आज विकसित हो रहा है इससे इस लोक उत्सव का स्वरूप विकृत ही होगा तथा प्रेम की रसधारा बहाने वाला यह पर्व अपने मूल उद्देश्य से भटक जायेगा ।

एल.एस.बिष्ट,

11/508, इंदिरा नगर

लखनऊ-16

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