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देशप्रेम का यह कैसा जुनून है

यात्रा
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भारत का क्रिकेट वर्ल्ड कप से सफर सेमी फाइनल मे हार के साथ खत्म हो गया । देश हारा इसलिए देशवासियों का हताश व निराश होना भी स्वाभाविक ही है । लेकिन जिस तरह इस हार को लेकर देशभर में प्रतिक्रिया हुई उसने हमारी देशभक्ति व देशप्रेम पर भी सवाल खडे किए हैं । आखिर ऐसा क्यों है कि हम देशप्रेम के मामले मे पल मे तोला पल मे मासा जैसे व्यवहार करने लगते हैं । एक रात पहले अपने जिन खिलाडियों की प्रशंसा मे गीत गाते नही अघाते, एक हार के बाद हम उनकी अर्थी निकालने लगते हैं । देश भर मे दुख की भावना का संचार होना एक बात है और आक्रोश मे टी.वी. तोडना, पुतले जलाना और अपने ही खिलाडियों के लिए अशिष्ट टिप्पणियां करना दूसरी बात है । हालात क्यों इतने खराब हो जाते हैं कि खिलाडियों के घरों मे पुलिस तैनात कर दी जाती है । गौरतलब यह भी है कि ऐसा कोई पहली बार नही हुआ बल्कि जब तब इस तरह के नजारे देखने को मिलते रहे हैं ।

सवाल उठता है कि क्या इस तरह का व्यवहार हमें दुनिया की नजर मे हास्यास्पद नही बनाता । भगवान की तरह सम्मान पाने वाले क्रिकेट खिलाडियों की एक हार उन्हें यकायक खलनायक क्यों बना देती है । हम उनकी पिछ्ली उपलब्धियों को पूरी तरह नजरअंदाज क्यों कर बैठते हैं । देखा जाए तो पश्चिमी मीडिया की नजर मे हमारा खेल के प्रति यह जुनून और फिर ऐसा व्यवहार हमे उनकी नजर मे जोकर बना देता है । एक ऐसा जोकर जो पल मे हंसता है और पल मे रोता है । हम ऐसे देश के रूप मे देखे और समझे जाने लगते हैं जो खेल की एक हार को भी स्वीकार नही कर पाते और मानसिक संतुलन खो बैठते हैं ।

मातम और निराशा का यह मंजर तब और गंभीर हो जाता है जब देश के लोग हार से इतने गहरे अवसाद मे चले जाते हैं कि आत्महत्या तक कर बैठते हैं । आष्ट्रेलिया के हाथों हार के बाद ऐसे कुछ मामले सामने आए हैं । किसी ने अपने को आग के हवाले कर दिया तो कहीं कोई फांसी पर ही लटक गया । यह तो असामान्य व्यवहार की पराकाष्ठा ही कही जाऐगी ।

किसी खेल या खिलाडियों के प्रति लगाव व देशप्रेम की भावनाएं महज एक हार के चलते इतनी आहत कैसे हो सकती है कि हम असामान्य व्यवहार करने लगें जिस पर कोई भी सामान्य व्यक्ति सहज विश्वास नही करेगा । इस असामान्य व्यवहार को लेकर हमें अपने देशप्रेम व भावनात्मक लगाव पर सोचना होगा कि आखिर क्यों देश मे ऐसा मंजर दिखाई देने लगता है ।

वैसे तो भारतीय समाज स्वभावगत भावना प्रधान है । हम कई अवसरों पर विवेक् से ज्यादा भावनाओं से निर्देशित होते हैं लेकिन थोडा गौर करें तो इसमे भी आग मे घी का काम आज की बाजार संस्कृति कर रही है । आज के दौर मे खेलों का अपना आर्थिक पहलू भी है । इससे जुडे व्यवसायिक हितों के लिए संचार माध्यमों मे पूरा एक परिवेश तैयार किया जाता है । अपने आर्थिक हित के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करने के प्रयास मे देश के सम्मान को भी भावनात्मक रूप से लोगों के दिलोदिमाग से जोड दिया जाता है । तार्किक व तथ्यपरक विश्लेषण न करते हुए प्रतियोगिता विशेष मे देश की संभावनाओं को बढा चढा कर पेश किया जाता है और फिर आशातीत परिणाम न मिलने पर पूरा देश शोक के सागर मे डूब जाता है ।

इस खेल महाकुंभ मे भी संचार माध्यमों की भूमिका कुछ ऐसी ही रही ।भारत की संभावनाओं को बढा चढा कर पेश किया गया और यह भुला दिया गया कि पिछ्ले वर्ल्ड कप मे खेलने वाली भारतीय टीम बिल्कुल अलग थी और बेहद अनुभवी । ऐसा इस बार नही था । लेकिन अपने आर्थिक हितों के लिए इन्होने ऐसा समां बांधा कि एक हार से खेलप्रेमियों को लगा मानो दुनिया ही खत्म हो गई ।

बहरहाल आज के दौर मे जब आर्थिक हित ही सर्वोपरि हों, नैतिक मूल्यों की आशा करना व्यर्थ सा लगता है । लेकिन स्वंय के विवेक को आगे रख कर तो सोचा ही जा सकता है । खेल आखिर खेल ही हैं कोई युध्द नहीं । खेलों मे जीतहार को उसी भावना से लिया जाना चाहिए ।

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