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जिंदगी को ड्सता अवसाद का अंधेरा

यात्रा
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आज अगर हम अपने आसपास हो रही घटनाओं से मुंह न मोडें तो यह बात पूरी तरह से साफ हो जाती है कि विकास व उन्नति की तेज धारा के साथ बहते हुए हम कहीं न कहीं मानवीय संवेदनाओं से कटते जा रहे हैं । यही नही, विकास की सीढियां चढते समाज का ताना-बाना भी कुछ इस तरह से उलझने लगा है जिसमें जिंदगी ही बोझ लगने लगती है । आज किसी भी अखबार मे राजनीतिक खबरों के बीच ऐसा बहुत कुछ भी है जिस पर सोचा जाना चाहिए लेकिन यह खबरें बिना किसी का ध्यान अपनी ओर खींचे चुपचाप बासी हो जाती हैं और हम आसानी से भूल जाते हैं कि ऐसा कुछ भी हमारे आस-पास घटित हुआ था । शायद ही कोई ऐसा दिन हो कि अखबार मे किसी आत्महत्या की खबर न हो | आये दिन किसी भी शहर के अखबार मे आठ-दस ऐसी खबरें होना अब आम बात हो गई है | बल्कि हमे कुछ नया तब लगता है जब किसी दिन ऐसी कोई खबर पढने को न मिले | कभी कोई छात्र नौकरी न मिल पाने के कारण फ़ांसी से लटक जाता है तो कभी कोई युवती अपने असफ़ल प्रेम के कारण अपने हाथों की नस काट लेती है | कहीं कोई कर्ज मे डूब कर किसी अपार्टमेंट से नीचे कूद पडता है तो कोई रेल की पटरियों के बीच लेट कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है | गहरे अवसाद मे डूबे और फ़िर मौत को गले लगाते ऐसे लोगों की संख्या साल-दर-साल बढती जा रही है | बल्कि इसका दुखद पहलू यह भी है कि इधर हाल के वर्षों मे युवाओं मे आत्महत्या की प्रवत्ति तेजी से बढी है | अभी तक यह माना जाता रहा है कि एक उम्र के बाद जिंदगी की परेशानियों से ऊब कर या लाइलाज बीमारी के कारण ही लोग अधेड उम्र मे यह कदम उठाते हैं | लेकिन अब तो बहुत कम उम्र के बच्चे भी यह आत्मघाती कदम उठाने लगे हैं | दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि देश में खुशहाल होते परिवेश के बीच इन खबरों की संख्या में निरंतर वृध्दि हो रही है । एक ही शहर में एक ही दिन में कई लोग जिंदगी से ऊब जिंदगी को अलविदा कहने को मजबूर हो जाते हैं । लेकिन न तो किसी अखबार में इन मानवीय घटनाओं पर संपादकीय लिखा  जाता है और न ही उन्हें प्रमुखता दी जाती है । बस किसी कोने मे एक छोटी सी खबर बन कर रह जाती है इंसानी  जिंदगी । दर-असल आज की उपभोक्ता संस्कृति व हमारी आत्मकेन्द्रित जीवन शैली  हमें मानवीय संवेदनाओं से कहीं दूर ले गई है । हमें  या तो सरकार, शासन व चुनाव की खबरें रास आती हैं या फिर बाजार मे आने वाले नित नये उपभोक्ता उत्पादों की । कहां क्या सस्ता बिक रहा है, यह हमारी सोच की प्राथमिकताओं मे है । सच तो यह है कि हमारी चिंताओं , सरोकारों और सोच का दायरा सिमट कर रह गया है । इस नजरिये से देखें तो मीडिया कहे जाने वाला भोंपू भी राजनीतिक खबरों, सेक्स स्केंडलों और विज्ञापनों की तिलस्मी दुनिया तक सीमित होकर रह गया है । राजनीतिक उठा-पटक व बलात्कार जैसे विषयों पर दिन-दिन भर चौपाल लगाने वाला मीडिया कभी भी मानवीय जीवन की त्रासदायक घटनाओं पर बहस करवाता नहीं दिखता । शायद फांसी पर लटकते लोग, पटरियों पर कटते इंसान कोई सवाल नहीं उठाते या फिर मानवीय जीवन के यह अंधेरे टी.आर.पी नही बढाते । बात कुछ भी हो लेकिन सामाजिक -पारिवारिक दवाबों को न झेल पाने की यह नियति और हमारी खामोशी या बेखबरी आज के समाज के चरित्र पर सवाल तो उठाती ही हैं । दर-असल गौर से देखें तो बीते दौर की तुलना मे हमने विकास और समृध्दि की लंबी छ्लांग लगाई है । हमारी जिंदगी अभावों के अंधेरे से निकल सुविधाओं की रोशनी से सराबोर हुई है । लेकिन इस समृध्दि के गर्भ मे ही हमारी परेशानियों, उदासियों और अवसाद के बीज निहित हैं । वस्तुत: बीते सालों मे हमने विकास का जो ढांचा स्वीकार किया उसने सपनों, आकांक्षाओं और भौतिक सुविधाओं की ललक तो जगाई लेकिन समय के थपेडों को सहने व झेलने के मूल्य विकसित नहीं  किए । यही कारण है कि चाहे मामला प्यार की कोमल भावनाओं का हो या फिर वैवाहिक जीवन की उलझनों का या फिर आर्थिक उतार-चढाव का, एक छोटा सा अंधड हमारी जडों को हिला पाने मे सफल हो जाता है । किन्हीं कमजोर क्ष्णों मे हम जिंदगी को अलविदा कहने को ही बेहतर विकल्प मान बैठते हैं । नित बढती यह घटनाएं विकास और समृध्दि के स्वरूप पर कुछ बुनियादी सवाल उठा रही हैं लेकिन हम हैं कि राजनीति व बाजार संस्कृर्‍ति से इतर कुछ देख पाने मे असमर्थ से होते जा रहे हैं । सवाल यही है कि आखिर हम इन घटनाओं मे निहित बेबसी, लाचारगी व उलझनों पर कब सोचना शुरू करेंगे । कब हम उन बातों पर चर्चा करने की जहमत उठायेंगे जो जिंदगी की बुनियाद को ही खत्म करने पर आमादा हैं । क्यों एक हंसती-खेलती जिंदगी पल तो पल में मौत के आगोश मे चली जाती है । कहीं न कहीं कुछ तो ऐसा है जिससे जिंदगी हार मान  बैठती है ।

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