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प्राकृतिक आपदा से उठे बुनियादी सवाल

यात्रा
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25 अप्रैल के चंद सैकेंड के कंपन ने विश्व मानचित्र पर एक जीते जागते देश का चेहरा ही बदल डाला । अपनी प्राचीन संस्कृति व धरोहरों के लिए पूरी दुनिया मे अपनी पहचान रखने वाला , हिमालय पर्वत श्रंखलाओं की गोद मे बसा नेपाल देखते देखते तिनकों की मानिंद बिखर गया । राजधानी काठमांडू जो दुनिया भर के पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है, मलबे के ढेर मे तब्दील हो गया । जहां के चप्पे चप्पे पर मुस्कान थी अब सन्नाटा पसरा पडा है ।

काष्ठमंडप जिसके नाम से काठमांडू शहर का नाम पडा, अब इतिहास मे दफन हो गया है । यूनेस्को की धरोहर दरबार स्क्वायर जिस पर कभी इस देश को गर्व था, अब नही रही । यह इतिहास जमीन पर घायल पडा है । धरहरा मीनार जिसकी नौ मंजिले कभी देश की शान का प्रतीक थीं अब मलबे का ढेर बन चुकी है । वह सबकुछ जिस पर नेपाल को गर्व था, अब दफन हो चुका है । अगर कुछ शेष है तो बर्बादी का मंजर ।

इस भूकंप से जितने व्यापक स्तर पर जान माल का नुकसान हुआ है उसने आगे के लिए एक खतरे की घंटी बजा दी है । इस विनाशलीला ने विकास और निर्माण की हमारी अवधारणाओं पर भी सवाल खडे किये हैं । यह दीगर बात है कि हम इसे कितनी गंभीरता से लेते हैं । दरअसल भूगर्भीय कारणों से अलग कुछ ऐसे भी कारण इस विनाशलीला के बनते हैं जो हमारी क्रियाकलापों से जुडे हैं । जिन्हें रोका जाना संभव है ।

आज शंका इस बात की भी है कि पूरे विश्व मे आर्थिक विकास का जो ढांचा अपनाया गया है, यह आपदाएं कहीं उन्हीं का प्रतिफल तो नहीं । विकास की होड मे प्रकृति के साथ जिस नाजुक संतुलन से बेपरवाह हो अपनी मनमानी कर रहे हैं कहीं आने वाली पीढीयों को इसका खामियाजा भुगतने का न्योता तो नही दे रहे । बहुत संभव है भूकंप, सुनामी या बाढ के माध्यम से दिये जा रहे संदेशों को हम पूरी गंभीरता से नही समझ पा रहे हैं ।

हिमालय क्षेत्र मे आए इस भूकंप मे जो भारी नुकसान उठाना पडा है, वह संभवत: कम होता अगर हमने विकास और निर्माण की सोच मे प्रकृति को भी महत्व व सम्मान दिया होता । नेपाल विशेष रूप से काठ्मांडू के आर्थिक विकास पर थोडा गौर करें तो बात आसानी से समझ मे आ जाती है । हिमालय की कच्ची पहाडियों मे भारी भरकम निर्माण कार्यों, बहुमंजिला इमारतों व विकास हेतु अपनाई गई गैरजिम्मेदार क्रियाकलापों ने कहीं न कहीं जमीन के संतुलन को बिगाडने का काम किया है । इधर कुछ वर्षों मे जिस तरह से निर्माण कार्यों को काठ्मांडू मे नेपाल सरकार ने अपनी स्वीकृति दी यह अपने आप मे एक आश्चर्य का विषय है । यह जानते हुए भी कि इसका भारी दवाब यहां की जमीन पर पडेगा तथा थोडी सी हलचल विनाश का कारण बन सकती है । यही नही ऐतिहासिक धरोहरों के आसपास बहुमंजिला इमारतों व होटल आदि के निर्माण का काम भी बदस्तूर जारी रहा । काठ्मांडू मे भारी नुकसान का यह भी एक कारण बना ।

वैसे भी पूरे हिमालय क्षेत्र मे भूकंपों के इतिहास पर नजर डाले तो य्हां कम तीव्रता के भूकंप प्रतिवर्ष आते रहते हैं लेकिन रिक्टर स्केल पर सात व उससे ज्यादा तीव्रता के पांचछ्ह भूकंप भी आ चुके हैं । इधर इस क्षेत्र मे भीषण भूकंप की भी भविष्यवाणी की जाती रही है । यह खतरा अभी भी बना हुआ है । दरअसल इस क्षेत्र मे जमीन के अंदर हलचल बढने से उर्जा जमा हो रही है और यह कभी भी विनाश के रूप मे बाहर आ सकती है । भारत के भी संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र मे यह खतरा मंडरा रहा है ।

वैसे तो भूकंप के संबंध मे टेक्टोनिक सिध्दांत को स्वीकार किया गया है जिसमे जमीन के अंदर प्लेटों की हलचल को इसका कारण माना जाता है । लेकिन जमीन के ऊपर इंसानी सभ्यता के कियाकलाप भी कहीं न कहीं भूगर्भीय हलचलों को प्रभावित करते हैं । यह हिमालयी क्षेत्र इसका जीवंत उदाहरण है । यहां की कच्ची पहाडियों मे बांध बनाने से लेकर विशालकाय कंक्रीट की इमारतों का जो जंगल खडा किया गया है उसने यहां के प्राकृतिक संतुलन को नुकसान पहुंचाया है । इन निर्माण कार्यों से कई क्षेत्रों मे अत्यधिक दवाब पडा है । सड्कों के निर्माण कार्यों के लिए जो डायनामाइड विस्फोट किए गये हैं उन्होने भी यहां की भूगर्भीय संरचना को प्रभावित किया है । परंतु विकास की अंधी दौड मे हम इन्हें अनदेखा कर रहे हैं ।

यहां गौरतलब यह भी है कि 7.9 तीव्रता का यह भूकंप अगर भारत मे आता तो स्थिति क्या होती । इस नजरिये से देखें तो यहां हालात कहीं ज्यादा भयावह होते । हमारा संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र हमारी अविवेक क्रियाकलापों का जीता जागता उदाहरण है । जून 2013 मे केदारघाटी विनाश की त्रासदी को झेल चुकी है । यहां अदूरदर्शी नीतियों के कारण हुए निर्माण कार्यों से पहाडियों पर बढता दवाब विनाश को न्योता दे रहा है और हम हैं कि बेखबर हैं । भूकंप की द्र्ष्टि से बेहद संवेदंशील इस क्षेत्र मे बनाया गया टिहरी बांध, हमारे विकास की सोच पर एक गंभीर सवाल बन कर खडा है ।

शहरों को देखें तो भारत मे अधिकांश स्थानों पर भूकंपरोधी मानकों का शायद ही पालन किया गया हो । मनचाहे तरीके से गगनचुंबी इमारतों का जाल बिछा कर अब हम ऐसे खतरे का रोना रो रहे हैं । यही नही, प्रत्येक शहर मे पुराने जर्जर मकानों का जंगल थोडी सी भूगर्भीय हलचल से बडे विनाश का कारण बनेंगे । लेकिन इस तरफ भी गंभीरता से सोचा जाना अभी बाकी है । देश के कई शहरों मे तो ऐसे जर्जर भवनों का सर्वे तक नही हो सका है और लोग मजबूरी के चलते इनमे रहने को मजबूर हैं । थोडा और गौर करें तो देश के अधिकांश पुराने शहरों मे आबादी की बसावट कुछ इस तरह से है कि ऐसी किसी भी घटना मे पूरा का पूरा शहर ही मलबे के ढेर मे तब्दील हो सकता है । लेकिन लाख ट्के का सवाल फिर वही है कि इस दिशा मे सोचे कौन ।

बहरहाल सवाल एक नही अनेक हैं । लेकिन इतना जरूर है कि अब आए दिन होने वाली इन प्राकृतिक आपदाओं के मद्देनजर एक गंभीर चिंतन की जरूरत है जिसके तहत हमे अपने विकास के ढांचे और आर्थिक उन्नति के नजरिये पर फिर से सोचना होगा । प्र्कृति की ताकत और उसके महत्व को स्वीकार करते हुए अपने आर्थिक विकास का खाका खींचना होगा । अगर समय रहते ऐसा न कर सके तो बहुत संभव है कि निकट भविष्य मे हमें इसकी भारी कीमत चुकानी पडे ।

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