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अरूणा की मौत से उपजे सवाल

यात्रा
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इधर कुछ समय से सामाजिक मुद्दों को लेकर भारतीय समाज मे एक अलग तरह की भावुकता दिखाई देने लगी है । भावनाओं का यह सैलाब जब तब अपने पूरे वेग के साथ आता है और जनमानस मे कुछ समय तक हलचल मचा कर कुछ इस तरह से विदा हो जाता है कि मानो कुछ हुआ ही नही । इस सैलाब के गुजर जाने के बाद कुछ भी शेष नही रह जाता । मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरूणा शानबाग का या मणीपुर की चानू शर्मिला का अथवा समय समय पर होने वाली अमानवीय घटनाओं से उपजी संवेदनाओं का । सभी मे भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का स्वभाव व चरित्र कमोवेश एक जैसा रहा है ।

दरअसल इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जब तक कोई इंसान जिंदा रह कर न्याय पाने की उम्मीद मे अपनी जिंदगी के सुनहले सालों की आहुति दे रहा होता है तब तक उसकी पीडा और संघर्षों की सुध लेना वाला कोई नही होता । एक दिन जब यकायक पता चलता है कि उसने जिंदगी से ही अलविदा कह दिया, भावनाओं और आंसूओं का जो सागर उमडता है उसका कोई किनारा दिखाई नही देता । कुछ अपवाद छोड दें तो इस तरह के भावनात्मक विस्फोट का कोई विशेष प्रभाव सामाजिकराजनीतिक तंत्र पर पडता दिखाई नही देता । कुछ दिनों की हलचल, बहस व चर्चाओं के बाद सबकुछ पहले की तरह ही चलने लगता है ।

अभी हाल मे 42 साल तक जिंदा लाश की तरह जीने वाली अरूणा शानबाग ने जब जिंदगी से अलविदा कहा तो पूरे देश मे भावनाओं का सैलाब उमड पडा । लेकिन देखा जाये तो नवम्बर 1973 को जो कुछ उसके साथ हुआ और फिर तथाकथित अपराधी सोहन लाल बाल्मीकि को जिस तरह से मात्र सात साल की सजा के बाद जेल की जिंदगी से आजादी मिल गई और वह नाम बदल कर बडे आराम से जिंदगी जीता रहा यह गंभीर सोच का विषय बना ही नही । इस बीच अरूणा बिस्तर पर तिल तिल कर मौत की आगोश मे जाती रही और शारीरिक लाचारगी मे उसे जो अमानवीय पीडा झेलनी पडी , उस पर बीते चार दशकों मे कभी कोई चर्चा नही हुई । बल्कि लोग भूल भी गये कि मुंबई के कैइएम अस्पताल मे इतना कुछ अमानवीय भी घटित हुआ । अरूणा शानबाग के साथ हुआ यह हादसा एक भूली बिसरी कहानी बन कर रह गया ।

इस बीच वे लोग जो न्याय की पैरवी करने और उसके लिए लडने का दावा करते हैं, लगभग खामोश ही रहे । उनकी दर्द भरी जिंदगी को देखते हुए उनकी मित्र पिंकी विरानी ने जरूर दयामृत्यु के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया । यह मुद्दा गंभीर चर्चा का विषय भी बना । लेकिन अंतत: अपील खारिज कर दी गई । अरूणा की किस्मत के इस क्रूर खेल का सबसे पीडादायक पहलू यह रहा कि वह इंसान जो इसके लिए जिम्मेदार था अपने अपराध की पूरी सजा न पा सका । अब जब वह इस दुनिया मे नही रहीं, न्याय व्यवस्था के इस पहलू पर सोचा जाने लगा है । यह पहला और अकेला मामला नही अक्सर लोग न्याय की आस मे इस दुनिया से ही अलविदा कह जाते हैं लेकिन जीते जी न्याय नही मिल पाता ।

कुछ ऐसी ही संघर्ष भरी कहानी रही है मणीपुर की चानू शर्मिला की जो एक कानून को खत्म करवाने के लिए 14 वर्षों तक संघर्ष करती रहीं बिना कुछ खाए पिये । लेकिन यहां भी वही आम भारतीय त्रासदी रही है । चानू का संघर्ष इतने वर्षों मे कभी चर्चा का विषय नही बना । बल्कि देश के अधिकांश लोग तो उनके नाम से भी परिचित नही रहे । 2 नवम्बर 2000 को मणिपुर के मालोम कस्बे के एक बस स्टाप मे असम राइफल के जवानों ने जिस तरह से दस लोगों को गोलियों से भून कर उनकी ह्त्या की थी , वह एक अभूतपूर्व घटना बनी । दरअसल देश के अफस्पा कानून के तहत वहां फौज को असीमित अधिकार प्राप्त हैं । इस पर कोई सवाल नही उठाया जा सकता । चानू ने इस कानून को उत्तर पूर्व के लिए एक घातक सैनिक हथियार के रूप मे समझ इसे खत्म करने का विरोध किया लेकिन सरकार इस हटाने के लिए कतई तैयार नही । सरकार इस कानून को वहां सुरक्षा के लिए जरूरी मानती रही है । बहरहाल इतने लंबे संघर्ष से लोग लंबे समय तक बेखबर रहे ।

यह अजीव विडंबना है कि इस तरह की अमानवीय घटनाएं या मानवीय मूल्यों के लिए किए जा रहे संघर्ष तभी चर्चा का विषय बनते हैं जब कुछ असाधारण् घटित हो जाए । यहां भी हमारा भावनात्मक आक्रोश जल्द ही शांत होकर सबकुछ भुला देता है । सिस्टम को सारी बुराईयों की जड बता कर हम अपने को किनारा कर लेते हैं । लेकिन यह शायद ही कभी सोचते हों कि इस सिस्टम को चलाने वाले कहीं न कहीं हम ही हैं । अलग अलग चेहरों व चरित्र के रूप मे हम ही सिस्टम का सृजन करते हैं । बहरहाल स्वस्थ सामाजिक परिवेश के लिए जरूरी है कि हम भावुक होकर प्रतिक्रिया न करें अपितु बुराईयों को जड से समझने का प्रयास करें । हमारी क्षणिक भावुकता से ऐसी समस्याओं का अंत नही होने वाला । बल्कि उसके बाद हमारी बेखबरी और खामोशी ऐसी घटनाओं के लिए अनुकूल परिवेश तैयार करती हैं । हम मानो फिर एक और घटना का इंतजार करने लगते हैं ।

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