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सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा पर कानून

यात्रा
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देर से ही सही सरकार ने राष्ट्र्हित मे एक सही कदम उठाने की पहल की है और इस दिशा मे गंभीर प्रयास भी शुरू कर दिए हैं । वैसे तो प्रदर्शनों व आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की बढती प्रवृत्ति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने बहुत पहले ही एक कमेटी गठित कर दी थी । इस कमेटी को यह सुझाव देना था कि ‘ प्रिवेंशन आफ डेमेज टू पब्लिक प्रापर्टी कानून 1984 ‘  को किस तरह से और अधिक प्रभावी बनाया जा सके । लेकिन काफी समय तक इस दिशा मे कोई विशेष प्रगति नही हुई थी । अभी हाल मे कमेटी ने अपनी सिफारिशें सरकार को दे दी हैं ।इसमें  सरकारी संपत्ति की रक्षा मे वर्तमान कानून को कमजोर बताते हुए इसे और अधिक कठोर बनाने के सुझाव भी दिए हैं । अब गृह मंत्रालय इस कानून को सख्त बनाने की दिशा मे सक्रिय हुआ है तथा इस संबध मे देशभर से राय व सुझाव भी मांगे हैं ।

इस कानून को कुछ इस तरह से सख्त बनाया जायेगा कि प्रदर्शनों व आंदोलनों के दौरान किए गये सरकारी संपत्ति के नुकसान के लिए अब भारी जुर्माना देना पडे तथा लंबी कैद की सजा भी ।
यहां गौरतलब है कि इधर कुछ वर्षों से देश मे नागरिक अधिकारों व प्रजातंत्र के नाम पर ऐसे व्यवहार का प्रदर्शन किया जाने लगा है कि एक्बारगी यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि इसे राष्ट्र्हित कहें या फिर राष्ट्र्द्रोह । राजनीतिक रूप से ‘ भारत बंद ” या ‘ प्र्देश बंद अथवा शहर बंद का नारा हो या फिर छोटी छोटी नागरिक समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करना, सडक जाम कर लोगों को असुविधा मे डालना तथा सरकारी संपत्ति का नुकसान करना, यह सब अब रोज की बात है । शुरूआती दौर मे यह कभी कधार देखने को मिलता था लेकिन अब तो मानो इसे एक हथियार बना दिया गया हो ।
देखा जाए तो शुरूआती दौर मे सरकारी संपत्ति के नुकसान का श्रेय भी हमारी राजनीतिक संस्कृर्ति को ही जाता है । बंद के आयोजनों तथा राजनीतिक प्रदर्शनों मे सत्ता पक्ष दवारा किये जाने वाले विरोध की प्रतिक्रिया स्वरूप सरकारी गाडियों , इमारतों आदि को आग के हवाले कर देने से इसकी शुरूआत हुई । तब इसे इतनी गंभीरता से नही लिया गया । लेकिन धीरे धीरे इसे अपने विरोध का एक कारगर तरीका ही बना दिया गया ।
आज स्थिति यह है कि किसी मुहल्ले मे बिजली की परेशानी हो या फिर पानी की समस्या, देखते देखते लोग सडक जाम कर धरना-प्रदर्शन शुरू कर देते हैं । पुलिस के थोडा भी बल प्रयोग या विरोध से यह प्रदर्शन आगजनी व तोडफोड के हिंसक प्रदर्शन मे बदल जाता है । थोडी ही देर मे कई सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया जाता है । सबकुछ शांत हो जाने पर इस भीडतंत्र का कुछ नही बिगडता । एक औपचारिक पुलिस रिपोर्ट अनजान चेहरों की भीड के नाम लिखा दी जाती है । इस तरह की रिपोर्ट लिखवाने का मकसद ऐसे तत्वों को सजा दिलवाना नही बल्कि सरकारी स्तर पर अपनी ‘ खाल बचाना ‘  होता है । खाना पूरी के बाद लाखों करोडों के सरकारी नुकसान को बट्टे खाते मे डाल कर फाइल बंद कर दी जाती है ।
यहां गौरतलब यह भी है कि सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के इस कार्य का विस्तार अब सिर्फ राजनीतिक प्रदर्शनों या नागरिक धरनों तक सीमित नही है । न्क्सलवाद व क्षेत्रीयवाद के नाम पर भी ऐसा किया जा रहा है । नक्सलियों दवारा आए दिन सरकारी वाहनों व पुलों को उडाने की खबरें आती रहती हैं । देश के नक्सली प्रभावित क्षेत्रों मे प्रतिवर्ष करोडों रूपयों की सरकारी संपत्ति इस ‘ वैचारिक विरोध ‘ की भेंट चढ जाते हैं । आंध्र प्रदेश , महाराष्ट्र , छ्त्तीसगढ, झारखंड व बिहार जैसे राज्यों मे तो करोडों रूपयों की सरकारी संपत्ति का नुकसान प्रतिवर्ष हो रहा है ।
कुछ समय पहले इस संदर्भ मे एक पत्रिका मे एक चुटकला प्रकाशित हुआ था कि देश मे अगर किसी चार साल के बच्चे को भी किसी बात पर अपना आक्रोश व्यक्त करना है तो  वह भी अपनी दूध की बोतल को किसी सरकारी बस की तरफ ही फेकेगा । बेशक यह एक अतिश्योक्तिपूर्ण प्रसंग हो लेकिन हालातों की एक बानगी तो प्रस्तुत करता ही है ।
दुर्भाग्यपूर्ण दुखद स्थिति तो यह है कि अपने गुस्से का इस प्रकार से इजहार करते हुए शायद ही कभी किसी ने सोचने की जहमत उठाई हो कि आखिर यह सरकारी संपत्ति आई कहां से ?  क्षण मात्र के अगर य्ह विचार मस्तिष्क में कौंध जाए तो संभवत: उठे हुए हाथ वहीं ठहर जाएं । लेकिन ऐसा होता नही है । इस तरह सरकारी संपत्ति से यह खिलवाड बदस्तूर जारी है ।
वैसे देखने वाली बात यह भी है कि ऐसे ही कानूनों की आवश्यक्ता कुछ अन्य क्षेत्रों मे भी है । जिस तरह से सार्वजनिक स्थलों व सेवाओं के प्रति हमारी एक लापरवाह व स्वार्थी मानसिकता बन गई है, उसे देखते हुए कानून का भय जरूरी हो गया है । बेशक मन से न सही, कम से कम सजा के भय से तो कुछ अच्छे परिणाम मिलने की संभावना बनेगी । इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि इस कानून को यथाशीघ्र सामयिक व सख्त बना कर देश भर मे लागू किया जाए तथा सरकारी संपत्ति के प्रति जो नजरिया बन गया है उसे बदला जाए ।

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