इधर कुछ समय से नक्सलवाद को भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बडा खतरा माना जा रहा है । देश के 180 जिलों यानी भारत के भूगोल का 40% हिस्सा नक्सल्वादियों या माओवादियों के कब्जे मे है । इसमे मुख्य रूप से हैं मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, प. बंगाल, छ्त्तीसगढ, उडीसा व महाराष्ट्र । इस क्षेत्र का नाम ही ” रेड कोरिडोर ” पड गया है । यहां नक्सलियों का कहना है कि वो उन आदिवासियों और गरीबों के लिए लड रहे हैं जिन्हें सरकार ने दशकों से अनदेखा किया है । वहीं माओवादियों का दावा है कि वो जमीन के अधिकार और संसाधनों के उचित वितरण के लिए स्थानियों लोगों के हक मे संघर्ष कर रहे हैं । यानी इस क्षेत्र की जनता के हितों का दावा सभी कर रहे हैं । इसमे सरकार भी पीछे नही । लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आए दिन होने वाली हिंसा में अगर सबसे अधिक अहित किसी का हो रहा है तो वह यहां के निवासियों का ।
दर-असल इस आंदोलन की पृष्ठभूमि व अब तक के इतिहास पर नजर डालें तो यह स्पष्ट है कि कभी एक अच्छे उद्देश्य से शुरू किया गया जनांदोलन भटक कर हिंसा, अपहरण व लूट की राह पर चलने लगा है । अपने बुनियादी उद्देश्यों से अब इसका रिश्ता लगभग टूट सा रहा है ।
यह आंदोलन प.बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाडी से शुरू हुआ । यहां भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 मे सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत की । मजूमदार चीन के कम्यूनिष्ट नेता माओत्से तुंग से बहुत प्रभावित थे । उनका मानना था कि भारतीय मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं । जिसकी वजह से अन्य वर्गों का शासनतंत्र और कृषि तंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो जाता है । इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है । 1977 मे आंतरिक विद्रोह हुआ । इसके नेता सत्यनरायण सिंह थे ।
मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन कई शाखाओं मे बंट गया । आज कई नक्सली संगठन वैधानिक रूप से स्वीकृत राजनीतिक पार्टी बन गये हैं और चुनावों मे भाग लेते हैं । लेकिन बहुत से संगठन अब भी अपने तथाकथित उद्देश्यों के लिए लडाई मे लगे हुए हैं । आज यही संगठन सरकार को चुनौती दे रहे हैं ।
यहां गौरतलब यह भी है कि नक्सलवाद अपने मूल रूप मे जमींदारों और खेतिहरों के बीच फसल बंटवारे को लेकर शुरू हुआ था लेकिन भूमि सुधार आज किसी के भी एजेंडा मे शामिल नही है । सबसे अधिक प्रभावित आंध्र प्रदेश मे नक्सलवादी आंदोलन का प्रादुर्भाव किसान क्रांति के लिए सशस्त्र संघर्ष हेतु 1967 मे उत्तरी बंगाल के नक्सलबाडी आंदोलन की तर्ज पर हुआ था । चारू मजूमदार से प्रेरित हो कई माक्सर्वादी ने आर्थिक क्रांति के लिए सशस्त्र संघर्ष का समर्थन किया । बाद मे सी.पी.एम. नेताओं जैसे डी.वी. राव, टी.नागारेडी व चंद्फुल्ल रेड्डी आदि ने इस आंदोलन की ठोस वकालत की । लंबे समय तक यंहा यह आंदोलन बडी तेजी से अपनी जडें जमाता रहा । लोग इससे जुडते रहे लेकिन अब यहां यह अपहरण, फिरौती और हिंसा का शिकार होकर रह गया है । जिस मूल उद्देश्य से इसकी शुरूआत हुई थी वह भटक गया ।
आंध्र के बाद नक्सली गतिविधियों का दूसरा बडा केन्द्र बिहार रहा है । दर-असल आर्थिक और जातिगत असमानताओं के बीच बिहार नक्सलियों के लिए हमेशा से एक उपजाऊ जमीन रहा है । यहां कई ग्रुप सक्रिय हैं । यहां समय समय पर हिंसक मुठभेडों मे कई बेकसूर लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडता है । लेकिन लगता है बिहार इसके लिए अभिशप्त है ।
बिहार व आंध्र प्रदेश मे नक्सली गतिविधियों के सक्रिय होने के कारण भी साफ हैं । यहां भूमि का बेहद असमान वितरण रहा है । एक तरफ पचास एकड वाले जमींदार हैं तो दूसरी तरफ खेतीहर मजदूर जिन्हें मजदूरी भी ठीक से नही मिलती । इस विषमता मे शोषण है, अन्याय व जुल्म है । ऐसे मे नक्सलियों को अपनी हिंसक गतिविधियों को सक्रिय रखने के लिए अनुकूल वातावरण मिल जाता है ।
दर-असल गौर से देखें तो नक्सल प्रभावित क्षेत्र आर्थिक रूप से पिछ्डे व आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र हैं । यहां इनकी अपनी संस्कृति व एक अलग पहचान रही है । यहां के प्राकृतिक साधनों पर वह अपना हक समझते हैं क्योंकि उनका पूरा सामाजिक जीवन ही जंगल और जमीन से जुडा है । अपने इसी अधिकार के लिए यहां के आदिवासी लोग हमेशा संघर्ष करते रहे हैं । आदिवासी यौध्दा तिलका मांझी ने अंग्रेजों से कहा था कि जब जंगल और जमीन भगवान ने हमे वरदान मे दिया है तो हम राजस्व क्यों दें ? फलस्वरूप अंग्रेजों और आदिवासियों के बीच संघर्ष हुआ । अंग्रेज भी आदिवासी क्षेत्रों पर कब्जा न कर सके । लेकिन आजादी के बाद भारत सरकार ने इससे कोई सबक नही सीखा और विकास के नाम पर उनके जंगल और जमीनों को अपने तरीके से हथियाने का प्रयास किया ।
सरकार की अदूरदर्शी नीतियों का ही परिणाम है कि आज भी इस क्षेत्र के वाशिंदे यह मानते हैं कि उन्हें मुख्यधारा मे शामिल करने के नाम पर उन्हें उनकी भाषा, संस्कृर्ति , परंपरा, पहचान व प्राकृर्तिक संसाधनों से बेदखल किया जा रहा है । अब इधर कुछ समय से आर्थिक उदारीकरण के चलते देश मे पूंजी निवेश बढा है । सरकार इस क्षेत्र को औदयोगिक गलियारा बनाने के लिए प्रयास रत है लेकिन यहां यह चीज दिमाग मे घर कर गई है कि सरकार कारपोरेट घरानों को यहां लूट के लिए न्योता दे रही है । जो अपनी तिजोरियां भर सकें । इसलिए दिन-ब-दिन विरोध भी बढता जा रहा है । नक्सली सरकारी निर्माण कार्यों , पुलों, पटरियों , आदि को अपना निशाना बना रहे हैं । चूंकि स्थानियों लोगों का चाहे-अनचाहे समर्थन नक्सलियों को मिलता रहा है इसलिए सरकार अपने को कमजोर स्थिति मे देखती है । नक्सली हिंसा व तोड फोड के जरिये अपना दबदबा बनाये रखना चाहते हैं । 25 मई 2013 को छ्त्तीसगढ के सुकमा जिले मे कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा मे हमला कर 27 लोगों की हत्या कर अपनी मजबूत उपस्थिति का संदेश देने का ही प्रयास किया । अब यह माना जाने लगा है कि नक्सलवाद देश की सबसे बडी समस्या है ।
बहरहाल सरकार और नक्सलियों तथा माओवादियों के बीच यह संघर्ष जारी है । लेकिन इसमे सबसे ज्यादा नुकसान आम लोगों का ही हुआ है । आम लोग दोनो के निशाने पर रहते हैं । जहां सुरक्षा बलों पर आरोप लगे हैं कि उन्होने नक्सली कह कर आम लोगों को निशाना बनाया वहीं माओवादियों पर भी आरोप है कि वह भी पुलिस के मुखबित कह कर लोगों को मौत के घाट उतारते है । यह सिलसिला कब रूकेगा , पता नही । लेकिन इन सबके बीच कहीं न कहीं सरकारी स्तर पर भारी चूक हुई है । आदिवासियों व उनकी भावनाओं को समझे बिना तथा उन्हें विश्वास मे न लेकर विकास के रथ को आगे लाने का प्रयास घातक सिध्द हुआ है । दर-असल यहां गोली की नही बल्कि राजनीतिक सूझ-बूझ और ईमानदार प्रयासों की जरूरत है । इस दिशा मे प्रयास किये जाने चाहिए ।
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