मणिपुर मे आतंकी हमले मे अठारह भारतीय जवानों की हत्या का बदला लेने मे भारतीय सेना ने जिस साहस व पराक्रम का परिचय दिया वह प्रशंसा के योग्य है । इसके साथ ही जिस राजनीतिक इच्छा शक्ति के बल पर यह संभव हो सका उसकी भी प्रशंसा की जानी चाहिए ।
इससे करोडों भारतीयों का सर गर्व से ऊपर उठना स्वाभाविक ही है | दर-असल पडोसी देश की करतूतों से देश के अंदर एक ऐसी भावना जाग्रत हो चुकी है जिसमें यह माना जाने लगा है कि बिना सख्ती और ठोस कार्यवाही के यह सब रूकने वाला नहीं | इसलिए जब आतंकवादियों को उन्ही की भाषा मे भारतीय सेना ने जवाब दिया तो देश के अंदर एक देशप्रेम और हर्ष की लहर का संचार होना स्वाभाविक ही है ।
दर-असल उत्तर पूर्व मे आतंकवाद का मामला हो या फ़िर सीमा पर पाकिस्तान व चीन की तरफ़ से होने वाली घुसपैठ, इससे देश की सुरक्षा पर कुछ सवाल उठते रहे हैं | पिछ्ली कांग्रेस सरकार के अंतिम दिनों मे जिस तरह चीन ने कुछ क्षेत्रों में गंभीर घुसपैठ की घटनाओं को अंजाम दिया उससे देश के लोगों मे एक असुरक्षा की भावना जाग्रत हुई थी और इन्हीं दिनों पाकिस्तानी सैनिकों ने लश्कर-ए-तैबा के सहयोग से उरी सेक्टर में कुछ सैनिकों की हत्या भी की ।तब भारत की ओर से सिर्फ़ एक कमजोर विरोध दर्ज कर चुप्पी साध ली गई थी | सरकार के इस रवैये से भी लोग आहत हुए और उनके स्वाभिमान को चोट लगी |
दर-असल इस तरह की घटनाओं की पृष्ठभूमि में जाकर पडताल करें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है | इस तस्वीर में एक तरफ़ तो मजबूत भारतीय सेना के मजबूत इरादे हैं तो दूसरी तरफ़ कमजोर राजनीतिक नेतृत्व | राजनीतिक स्तर पर लिए गये ढुलमुल कमजोर फ़ैसलों ने कई बार भारतीय सेना को बडी लाचारगी की स्थिति में भी खडा किया है | 1971 के भारत-पाक युध्द को अपवाद्स्वरूप छोड दें तो अधिकांश अवसरों पर देश के कमजोर नेतृत्व के कमजोर फ़ैसलों ने देश का नुकसान ही किया है |
भारत अपने जन्म से ही एक उदार सोच वाले राष्ट्र के रूप में विकसित हुआ । अगर थोडा पीछे देखें तो विभाजन के समय होने वाले साम्प्रदायिक हिंसा के संदर्भ में गांधी जी की उदार भूमिका पर आज भी सवाल उठाये जाते हैं । लेकिन वहीं सीमा पार से ऐसी किसी उदार सोच के स्वर नहीं सुनाई दिये थे । इसके फलस्वरूप देश मे एक बडा वर्ग आज भी गांधी जी की उस उदारता का पक्षधर नहीं दिखाई देता ।
इसके बाद तो पाकिस्तान और भारत का इतिहास युध्द और राजनीतिक विवादों का ही इतिहास रहा है । लेकिन इन युध्दों का और उस संदर्भ में हुए राजनीतिक निर्णयों का यदि बारीकी से पोस्टमार्टम करें तो यह बात स्पष्ट रूप से सामने आती है कि भारत ने यहां भी अपनी उदार सोच का खामियाजा भुगता है ।
यही नही दुश्मन देश दवारा आतंकवाद के माध्यम से जो परोक्ष युध्द भारत के साथ लडा जा रहा है उसमे भी भारत का नरम रूख जग जाहिर है । समय समय पर देश के विभिन्न शहरों मे आतंकी हमलों मे देश को भारी जान माल का नुकसान उठाना पडा है । इस कडी मे मुम्बई आतंकी हमले ने तो पूरी दुनिया का ध्यान इस ओर खींचा । तब उम्मीद की जा रही थी कि संभवत: भारत कोई सख्त कदम उठा कर हमले का माकूल जवाब देगा । लेकिन ऐसा कुछ नही हुआ । कुछ दिन तक दोनो देशों के बीच आरोप प्रत्यारोप चलते रहे और फिर धीरे धीरे सबकुछ ठंडा हो गया ।
लेकिन इधर कुछ समय से भारत की चिर परिचित नरमी का स्थान सख्त रवैये ने लिया है । म्यांमार मे किए गये मिलेट्री आपरेशन ने अब यह स्पष्ट संकेत दे दिये हैं कि अब भारत आतंक के साथ किसी भी तरह की नरमी या समझौता करने के पक्ष मे नही है । लेकिन जिस तरह से इस मिलेट्री आपरेशन को मीडिया मे बढा चढा कर पेश किया गया , इस अतिवाद से बचा जाना चाहिए । बार बार यह कहंना कि ” भारत ने उनके घर मे घुस कर उन्हें मारा है ” विश्व बिरादरी को एक अति आक्रामक होने का संदेश भी देता है । यही कारण है दो दिन बाद ही म्यांमार की सरकार यह कहने को विवश हो गई कि भारत ने यह कार्रवाही अपनी सीमा के अंदर रह कर ही की है ।
यही नही अति उत्साही रिपोर्टिंग और बयानबाजी ने पडोसी देश को भी बयानबाजी करने को मजबूर कर दिया । सही समय पर सही कदम उठाना एक चीज है और उसके पहले ही शोर मचाना दूसरी चीज । अंतर्राष्ट्रीय मामलों मे कभी कभी इससे अहित होने की संभावना भी बनती है । अपनी सेना का मनोबल बढाया जाना भी जरूरी है लेकिन यह सबकुछ बडे ही संतुलित तरीके से किया जाना चाहिए । इसे इस तरह से पेश नही किया जाना चाहिए कि देश मे युध्द उन्माद जैसी कोई बात दिखाई देने लगे ।
कुछ ऐसा ही करगिल युध्द के समय हुआ । भारतीय सेना के बेमिसाल शौर्य के बल पर देश करगिल युध्द मे विजयी हुआ था लेकिन यहां यह नही भूलना चाहिए कि वह युध्द अपनी ही जमीन और चौकियों को दोबारा हासिल करने के लिए लडा गया था । सैकडों जवानों की आहुती देनी पडी थी । लेकिन उस युध्द मे वीरता का जिस तरह से महिमा मंडन किया गया उसने सरकार की कमजोरी छिपाने मे अहम भूमिका निभाई । वह युध्द ही नही होता अगर भारत सतर्क रहता । अपनी चौकियों को
लावारिश छोड देने का खामियाजा भारत को युध्द के रूप मे भुगतना पडा था । इसके अतिरिक्त जिस बेहद सुरक्षात्मक तरीके से युध्द लडा गया और भारतीन सैनिकों को अपना
बलिदान देकर अपनी जमीन और चौकियां वापस लेनी पडीं उस पर कभी सवाल ही नही उठे ।
सैनिकों की वीरता के महिमा मंडन ने कई बडे सवालों को अंधेरे मे ही दफन कर दिया ।
यह जरूरी है कि इस प्रकार की सैनिक कार्रवाहियों को लेकर दिये जा रहे राजनीतिक
बयानों पर बेहद सतर्कता बरती जाए । अति उत्साह भरे बयानों से परहेज किया जाना चाहिए ।
इस मामले मे अमरीका दवारा ओसामा बिन लादेन की हत्या के लिए किए गये आपरेशन से
बहुत कुछ सीखा जा सकता है । यह काम इतनी गुप चुप तरीके से किया गया कि किसी को
आभास तक नही हुआ । लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद भी अमरीकी सरकार व सेना ने हाई प्रोफाइल बयानबाजी से अपने को
अलग रखा । लेकिन भारत से इस मामले मे थोडा चूक अवश्य हुई है । यही कारण है कि पाकिस्तान को भी आक्रामक बयानबाजी का अवसर मिला और म्यांमार सरकार को भी अपना पल्ला झाडना पडा । भविष्य मे ऐसा रणनीतिक चूक न हो इसका प्रयास किया जाना
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