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‘ प्रतिभाओं ‘ के चयन पर सवाल

यात्रा
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सभी शैक्षिक संस्थानों मे नये शिक्षा सत्र मे प्रवेश हेतु घमासान शुरू हो गया है | यह घमासान उन संस्थानों मे कुछ ज्यादा ही भीषण है जो येन केन अपनी पहचान शहर के एक ‘ अच्छे ‘ स्कूल या कालेज के रूप मे बना लेने मे सफ़ल हुए हैं | दिल्ली, मुबंई, कोलकता व दूसरे बडे शहरों के नामी कालेजों मे दाखिले की स्थिति तो यह है कि अब कट आफ़ 100 के आसपास ही रहता है |  दिल्ली के कई नामी कालेजों मे तो अब 100 प्रतिशत के कट आफ़ पर ही प्रवेश प्रकिया शुरू होकर ख्त्म हो जाती है | यानी 99 अंक पाने वाले छात्र या छात्रा को भी प्रवेश नही मिल पा रहा है |

कालेज या विश्वविधालय स्तर के नीचे के शैक्षिक तंत्र पर नजर डाले तो यहां भी कमोवेश यही स्थिति है | किसी भी शहर के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूलों मे प्रवेश के लिए अभिभावकों को जिन औपचारिकताओं से गुजरना पडता है उसकी एक अपनी कहानी है | भारी भरकम फ़ीस और तमाम तरीकों से लिये जाने वाले पैसे तो अब आम बात है लेकिन इन सबके बाबजूद यहां आज भी भीषण मारामारी दिखाई देती है | |

नब्बे और सौ प्रतिशत अंक पाने वाले यही मेधावी आगे चल कर देश की प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से प्रशासन , चिकित्सा व इंजीनियरिंग सेवाओं मे स्थान पाते हैं | संघ लोक सेवा आयोग व राज्य लोकसेवा आयोग प्रतिवर्ष ऐसी हजारों प्रतिभाओं  को तलाशने के लिए परीक्षाएं आयोजित करता है| लेकिन सवाल यह है कि क्या आयोग की परीक्षा मे उत्तीर्ण हुए इन चेहरों को ‘ प्रतिभा ‘ कहा जाना चाहिए |

आज से लगभग 100 साल पहले जर्मन के एक विख्यात वैजानिक विलियम आस्ट्वेल्ड से उनके एक छात्र ने सवाल पूछा कि क्या हम बहुत छोटी उम्र में ही यह पता नही लगा सकते कि आगे चलकर नौनिहाल डाक्टर, वैज्ञानिक, वकील बनेगा या कवि, लेखक | छात्र का यह सवाल ऊपर से जितना साधारण लगता था अन्दर से उतना ही पेचीदा |

वर्षों तक वैज्ञानिक छानबीन के बाद यह निष्कर्ष निकला कि प्रतिभा की पूरी व विश्वसनीय पहचान न तो बचपन मे हो सकती है और न ही किसी परीक्षा के माध्यम से | लेकिन आज हम कितनी सरलता से प्रतियोगिताओं के दवारा प्रतिभाओं का चयन कर रहे हैं | सच तो यह है कि किसी भी प्रतियोगिता या परीक्षा के माध्यम से हम मौलिक प्रतिभा का चयन नही कर सकते | यही कारण है कि चुने गये पहली पंक्ति की ये प्रतिभाएं कोई भी मौलिक या बडी उपलब्धि नही दे पातीं | जब कि प्रतियोगिता मे असफ़ल हुए कई लोग आगे चल कर मौलिक सृजन करने मे सफ़ल हुए हैं |

वास्तविकता यह है कि प्रतियोगी परीक्षा के माध्यम से उस विशेष तरह की प्रतिभा की तलाश की जाती है जो ऊंची कुर्सी पर बैठ एक लीक पर अनुशासन से चल सके |शायद ही कभी किसी ने सुना हो कि किसी आई ए एस अधिकारी ने शासन संबधी कोई नया तरीका ईजाद किया हो या किसी आई पी एस ने आंतरिक सुरक्षा के लिए कोई नया कारगर तरीका प्रयोग किया हो ( अपवाद छोड कर ) अथवा अर्थ सेवाओं से जुडी किसी ‘ प्रतिभा ‘ ने बिल्कुल मौलिक आर्थिक विचारधारा का प्रतिपादन किया हो |

अपवाद स्वरूप जो कुछ प्रतिभाएं आ भी जाती हैं उन्हें एक विशेष तरह से हांक कर औसत बना दिया जाता है | कुछ समय बाद वह भी अपनी मौलिक्ता खो बैठते हैं | जनता व सरकार के बीच खडी ‘ प्रतिभा ‘ ( प्रशासनिक अधिकारियों ) को सरकार के नजदीक और जनता से दूर कर दिया जाता है | वैज्ञानिक खोजों व नई आर्थिक नीतियों से जुडे व्यक्तियों को ‘उच्च प्रशिक्षण ‘ या ‘ रिसर्च ‘ के नाम पर विकसित देशों मे भेज दिया जाता है | परिणामस्वरूप उन्हें विदेशी समस्याओं व आंकडों का तो अच्छा ज्ञान हो जाता है लेकिन देश की बुनियादी समस्याओं के बारे मे कम ही जानते हैं | शायद यही देख कर अक्टूबर 1985 मे एक पत्रिका को दिये साक्षात्कार मे राजीव गांधी ने कहा था कि “ कोई तो हो जो हलों को बेहतर बना सके, बैलों के कंधे पर रखे जाने वाले जुए मे सुधार ला सके, थ्रेसर को ज्यादा सुविधाजनक बना सके | “

सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर यह प्रतिभा खोजी प्रतियोगिताएं किन प्रतिभाओं की खोज करती हैं | इन प्रतिभाओं मे बहुधा मौलिक सोच व चिंतन का अभाव पाया जाता है और न ही सृजन करने की क्षमता | दूसरी तरफ़ बिना किसी प्रतियोगिता मे सफ़ल हुए या तृतीय श्रेणी मे पास हुए आगे चल कर विभिन्न क्षेत्रों मे मौलिक सृजन करते हैं | वैसे भी प्रेमचंद, कालिदास, शेक्सपियर या न्यूटन किन प्रतियोगिताओं मे सफ़ल हो ‘ प्रतिभा ‘ कहलाए | लेकिन आज हम इनमे सफ़ल उम्मीदवारों को जो आगे चल कर औसत दर्जे के प्रशासक, पुलिस अधिकारी , डाक्टर या वैज्ञानिक होकर रह जाते हैं ‘ प्रतिभा ‘ होने का ठप्पा लगा, ऊंचे वेतन व सुविधाएं दे रहे हैं |

प्र्शासनिक सेवाओं मे चयन व प्रशिक्षण से लेकर कामकाज का ढर्रा ऐसा रखा गया है कि वह एक कठपुतली बन कर रह जाता है | चूंकि इन ‘ प्रतिभाओं “ की नकेल अप्रत्यक्ष रूप से इन्हीं राजनीतिज्ञों के हाथों मे है इसलिए ये भी अपने भविष्य का ख्याल रखते हुए एक सीधी लकीर पर चलना बेहतर समझते हैं | ‘ प्रतिभाशाली साहबों “ की यह पहली पंक्ति ‘ अनुशासनबध्द ‘ हो कार्य करती रहे इसके लिए जरूरी है ऊंचे वेतनमान, व ढेरों सुविधाएं तथा उनके अहम संतुष्टि के लिए थोडी बहुत ‘पावर ‘ |

सवाल उठता है कि 100 प्रतिशत अंक लाने वाले हमारे यह मेधावी क्या ऐसा अलग कर पाते हैं कि हमे इन पर गर्व हो | अगर आगे चल कर इन्हें भी भ्र्ष्टाचार के दलदल मे ही धंसना है तथा अपने आर्थिक व प्रशासनिक लाभों के लिए वही जोड तोड करने हैं तो यह किस बात के मेधावी ? इन 100 प्रतिशत अंकों का क्या लाभ | यही नही विश्व स्तर की प्रतिभा खोज प्रतियोगिताओं मे यह हमारे मेधावी कहीं नही दिखते | आखिर हमारी शिक्षा प्रणाली मे शत प्रतिशत अंकों का क्या तिलिस्म है, इसे समझना होगा | कहीं ऐसा तो नही कि यहां भी हम किसी धोखे का शिकार हो रहे हों और हमे इसका आभास तक नही | अगर ऐसा कुछ दोष हमारी परीक्षा प्रणाली या प्रतिभा मूल्यांकन मे है तो समय रहते इसे दूर करना बेहद जरूरी है |

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