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राजनीति बनाम नौकरशाही का दंगल

यात्रा
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उत्तर प्रदेश मे सत्ता और नौकरशाही की लडाई एक दिलचस्प नजारा पेश कर रही है । एक तरफ सत्ता का अहम है तो दूसरी तरफ एक नौकरशाह के आत्मसम्मान का सवाल । रोजरोज उलझती और व्यापक होती इस लडाई के कई दिलचस्प पहलू हैं । वैसे तो इसकी शुरूआत सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव दवारा आई.पी.एस. अमिताभ ठाकुर को किए गये एक फोन काल से हुई थी। जिसके बारे मे उनका कहना है कि सपा प्रमुख ने उन्हें फोन पर धमकाने की कोशिश की थी । लेकिन जल्द ही एक महिला ने इस मामले को दूसरा ही रंग दे दिया । उसने अमिताभ ठाकुर पर बलात्कार किए जाने का ही आरोप जड दिया ।

महिला की माने तो वह जब नवम्बर मे गाजियाबाद मे उनकी पत्नी नूतन ठाकुर से मिली थी तब उनकी पत्नी ने उसे नौकरी दिलाने की बात कह कर अपने लखनऊ आवास मे बुलाया था । 31 दिसम्बर की रात जब वह अपने पति के साथ उनके आवास पहुंची तो नूतन ठाकुर ने उसे साक्षात्कार के लिए उनके कमरे मे भेजा जहां उन्होने उससे बलात्कार किया ।

लेकिन बात यही तक नही है । निलंबित आई.जी अमिताभ ठाकुर का कहना है कि शिकायत दर्ज कराने वाली महिला उनकी पत्नी नूतन ठाकुर के दर्ज कराये गये एक मुकदमे मे अभियुक्त है इसलिए वह ऐसा कह रही है और जहां तक आरोपों का सवाल है पुलिस ने जांच कर उसके आरोपों को गलत पाया तथा इस बात को पुलिस हाई कोर्ट मे पहले ही लिखित रूप से दे चुकी है । ऐसे मे अब दोबारा उसके आरोपों पर जांच का कोई मतलब नही

बहरहाल, किसी उच्च सरकारी अधिकारी दवारा राजनेताओं से टकराव का यह कोई पहला उदाहरण नही है । पहले भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं । जहां प्रशासनिक निर्णयों को लेकर तीखे मतभेद हुए हैं । इस तरह के मामलों मे अक्सर राजनीति का रंग चढने के कारण वह अखबारों की सुर्खियां बन जाता है । सपा मुखिया व निलंबित आई.जी का मामला भी कुछ ऐसा ही है ।

नित नये उलझावों, आरोपोंप्रत्यारोपों के बीच यह एक सच है कि अब इस दौर की राजनीति मे राजनेता नौकरशाहों को अपने इशारों पर चलने वाली कठपुतली के रूप मे देखने लगे हैं । चूंकि भारतीय संविधान व राजनीतिकप्रशासनिक व्यवस्था मे राजनेताओं को एक आई..एस अथवा आई.पी.एस से भी ऊंचा दर्जा प्राप्त है इसलिए ऐसी सोच का होना स्वाभाविक ही है । नियुक्ति से लेकर नौकरशाहों के प्रमोशन व ट्रांसफरपोस्टिंग के मामलों मे राजनीतिक ह्स्तक्षेप प्रभावी रूप से है, अत: राजनीति का नौकरशाही पर वर्चस्व समझना लाजिमी है । ऐसे मे अगर किसी उच्चाधिकारी ने किसी बडे राजनेता या मंत्री के आदेशों को नतमस्तक हो स्वीकार न किया और उसमें किंतु परंतु लगाने का दुस्साहस किया तो उसे राजनीतिक तंत्र दवारा सबक सिखाये जाने का प्रयास किया जाता रहा है । ऐसा ही कुछ इस मामले मे भी है ।

वैसे देखा जाये तो मोटे तौर पर स्वतंत्रता के बाद की कहानी राजनीति दवारा नौकरशाही को अपने तरीके से हांकने की कहानी रही है । लेकिन ऐसा भी नही कि कभी नौकरशाहों ने इस हांके जाने का कोई पुरजोर विरोध किया हो । इस हांके जाने मे ही नौकरशाही ने अपने भी स्वार्थ तलाश लिये । लेकिन अपवाद स्वरूप कुछ आवाजें यदा कदा मुखर होती रही हैं । भेड बनाये जाने के विरोधस्वरूप चंद नौकरशाहों की आवाजों को मीडिया मे काफी सुर्खियां भी मिलीं । लेकिन अधिकांश ऐसी बगावतें जल्द ही भुला दी जाती हैं । लेकिन कुल मिला कर देखें तो राजनीति के भदेस होते चेहरे के सामने आत्मसमर्पण न करने वाले यह चेहरे राजनेताओं व उनकी राजनीतिक संस्कृति को काफी हद तक उजागर करने मे भी सफल होते रहे हैं तथा इस बात को भी कि आज के राजनेताओं को ईमानदार व स्वाभिमानी लोग कतई नही भाते ।

बहरहाल इन आवाजों को समर्थन और सम्मान मिलना ही चाहिए । वरना एक दिन राजनीति वह सबकुछ डस लेगी जो भी शेष अच्छा बचा है ।

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