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मुस्लिम आस्थाओं और रिवाजों के नाम पर

यात्रा
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एक कहावत है कि ज्यों ज्यों दवा की मर्ज बढता गया | देश मे धर्मनिरपेक्षता के स्वरूप को लेकर कुछ ऐसा ही दिखाई दे रहा है | बल्कि सच तो यह है कि जिनके हितों के मदद्देनजर धर्मनिरपेक्षता का ढोल जोर जोर से पीटा जाता रहा है, वहीं से धर्म की चाश्नी मे लिपटे नारे सुनाई देने लगे हैं | आस्थाओं और रिवाजों के नाम पर उन बातों का भी विरोध किया जाने लगा है जिनका प्रत्यक्ष रूप से किसी धर्म विशेष की आस्था से कोई रिश्ता ही नही | लेकिन कोढ पर खाज यह कि जिस अल्पसंख्यक समुदाय के धार्मिक हितों की चिंता को लेकर देश के अधिकांश सेक्यूलर नेता छाती पीटते और दिन रात चिंता मे डूबे नजर आते हैं और समाज का तथाकथित सेक्यूलर बौध्दिक जीव भी फ़्रिक मे दुबला होता दिखाई दे रहा हो, वही समाज अब प्रत्येक प्रशासनिक नीतियों मे अपनी आस्था को खतरे मे पडता देख रहा है | किसी भी बात का तिल का ताड बनाने मे उसे कोई परहेज नही | चिंताजनक तो यह है कि अल्पसंख्यक समुदाय के एक वर्ग की इस दुर्भाग्यपूर्ण सोच पर अभी गंभीरता से सोचा जाना बाकी है |

अभी गत 15 जून को नकल के कारणों से सी बी एस ई को अपनी आल इंडिया प्री मेडिकल परीक्षा को रद्द करना पडा था | पुन: परीक्षा के लिए बोर्ड ने ड्रेस कोड जारी किया तथा कुछ आवश्यक निर्देश भी | इसे लागू करने का एक मात्र उद्देश्य नकल की संभावनाओं पर नकेल लगाना है | इसी ड्रेस कोड के तहत परीक्षा के समय छात्र- छात्राएं पूरी बांहों के वस्त्र, बडे बटन वाले वस्त्र और सिर पर स्कार्फ़ (हिजाब ) नहीं पहनेंगे | न ही हेयर पिन तथा पर्स का उपयोग करेंगे |

बस फ़िर क्या ? मुस्लिम संगठन स्टूडेंट इस्लामिक आर्गेनाइजेशन आफ़ इंडिया व तीन मुस्लिम छात्राओं ने ड्रेस कोड को अपनी धार्मिक आस्थाओं के विरूध्द बताते हुए अदालत मे चुनौती दे डाली | उनका कहना है कि इससे संविधान मे मिली धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का हनन होता है | अत: इसे रद्द किया जाना चाहिए | मुस्लिम समाज मे पूरे बांह के वस्त्र पहनना, सिर पर स्कार्फ़ यानी हिजाब बांधना जरूरी माना गया है | इस ड्रेस कोड के रहते मुस्लिम छात्राएं परीक्षा नहीं दे पायेंगी |

इस याचिका की सुनवाई पर मुख्य न्यायाधीश एच एल दत्तू की पीठ ने इसे न ही तर्कसंगत और न ही धार्मिक आस्था पर चोट माना | मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि तीन घंटे परीक्षा मे बगैर हिजाब बांध कर बैठने से कोई धार्मिक आस्था पर आंच नही आती | कई बार तर्कसंगत नियंत्रण लगाने पडते हैं |

अब सवाल इस बात का है कि जिस धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय की पहचान व उनके धार्मिक निजता को सुरक्षित रखे जाने के लिए इतना राजनीतिक घमासान दिखाई देता हो वही समुदाय बात बात पर तिल को ताड बनाते हुए अपनी धार्मिक पहचान को खतरे मे होने का बेवजह शोर नही मचा रहा |

ऐसा पह्ली बार नही है | अभी हाल मे योग को लेकर भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला | इसे अपने धर्म विरूध्द मानते हुए इसमें भाग न लेने की बातों को जोर शोर से प्रचारित किया गया | वह तमाम बातें जिनका कोई तार्किक आधार नही था, योग के विरोध मे कही गईं | बेवजह उसे धर्म से जोडने के प्रयास हुए | यहां संतोष की बात यह रही कि मुस्लिम समाज के ही एक प्रगतिशील ,उदार वर्ग ने इसे नकार दिया |

यही नही, समय समय पर राष्ट्र्गान व बंदे मातरम को लेकर भी मुस्लिम समाज के एक वर्ग ने अपनी “ धार्मिक चिंताओं “ को बखूबी उजागर किया है | अब तो ऐसा प्रतीत होता है कि राजनीतिक फ़ैसलों व देशहित मे उठाये गये प्रशासनिक निर्णयों को धर्म और आस्था के चश्मे से देखना और फ़िर सहमति या असहमति प्रकट करना जरूरी समझा जाने लगा है | यहां गौरतलब यह है कि यह प्रवत्ति बहुसंख्यक समाज मे नही बल्कि अल्पसंख्यक समाज मे दिखाई दे रही है |

इस तरह अल्पसंख्यक समुदाय की गैरजरूरी धार्मिक आस्था की यह चिंता बहुसंख्यक समुदाय को भी कहीं न कहीं रास नही आ रही और एक ऐसे सामाजिक परिवेश को भी विकसित कर रही है जहां बहुसंख्यक समाज को अपनी उपेक्षा होती दिख रही है | ऐसे मे उसे अपने ही घर के कोने मे धकेले जाने की तुष्टिकरण जनित साजिश की भी बू आ रही है | अगर ऐसा होता है तो यह इस देश के कतई हित मे नही होगा | इसलिए जरूरी है कि अल्पसंख्यक समुदाय धार्मिक पहचान व आस्था के सवाल पर भेडिया आया, भेडिया आया की मानसिकता से अपने को मुक्त करे |

एल एस बिष्ट, लखनऊ

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