Menu
blogid : 18110 postid : 1090176

ऐतिहासिक जीत के खामोश पन्ने

यात्रा
यात्रा
  • 178 Posts
  • 955 Comments

1965 मे पाकिस्तान पर भारत की जीत का जश्न पूरा देश मना रहा है और यह जरूरी भी है । 1962 मे चीन के साथ हुए अप्रत्याशित युध्द मे मिली पराजय ने देश को निराशा के गर्त मे डाल दिया था । लेकिन 65 के युध्द मे हमारी सेना की बेमिसाल बहादुरी और उच्चकोटी की सैन्य रणनीति ने पाकिस्तानी फौज को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया ।यह एक शानदार विजय थी जिस पर हर भारतीय को हमेशा गर्व रहेगा । इस शानदार विजय के बाद 1971 का युध्द तो भारतीय सेना का वह इतिहास है जिसका दुनिया के सैन्य युध्दों मे कोई सानी नही । लेकिन 1965 के युध्द से जुडे कुछ ऐसे पन्ने हैं जिन पर एक खामोशी की चादर आज तक पडी है । इस खामोशी पर सोचा जाना भी जरूरी है ।

दरअसल इस युध्द के पूर्व भी पाकिस्तान ने कबिलाइयों के साथ मिल कर हमला किया था । लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर दोनो देश युध्द विराम के लिए राजी हो गये । लेकिन चूंकि उस समय कश्मीर एक स्वतंत्र रियासत थी तथा तत्कालिन राजा हरि सिंह ने उसका विलय भारत के साथ स्वीकार नही किया था अत: जब तक भारतीय सेना कश्मीर बचाने के लिए पहुंचती, पाकिस्तान एक हिस्से मे अपना कब्जा जमा चुका था । बाद मे विलय होने के बाद भी भारत ने पाक अधिकृत कश्मीर के सवाल पर कभी शोर नही मचाया । यह एक बडी भूल थी ।

भारत के इस नरम रूख ने उसे दुस्साहस करने का बल दिया । वह समूचे कश्मीर के सपने देखने लगा । इसकी शुरूआत की उसने कच्छ के रन से जो एक बंजर इलाका है । दरअसल बंटवारे का विवाद यहां भी रहा है । 20 मार्च 1965 को उसने यहां कुछ छेडछाड की लेकिन बिट्रिश प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप से लडाई बंद हो गई । कुछ सैन्य रणनीतिकार मानते हैं कि यह पाकिस्तान की भारत की सैन्य शक्ति को समझने का एक प्रयास भर था । असली लडाई तो होनी बाकी थी ।

कच्छ की छोटी लडाई मे पाकिस्तान ने भारत की सैन्य शक्ति को कुछ कम कर आंकने की भूल की । यही कारण था कि पाकिस्तान के कुछ राजनेताओं व सैनिक जनरलों ने तत्कालीन राष्ट्र्पति व सेनाध्यक्ष जनरल अयूब खान पर कश्मीर पर ह्मले का दवाब बनाया । दरअसल उसके जनरलों ने बताया कि हमला होने पर कश्मीर की जनता उनके पक्ष मे विद्रोह कर देगी और उनका काम आसान हो जायेगा । जनरल अयूब खान ने थीडी बहुत नानुकर के बाद सैनिक अभियान जिब्राल्टर का आदेश दे दिया । लेकिन इसमें पाकिस्तान को मुंह की खानी पडी । वैसा कुछ भी नही हुआ जैसा वह मान कर चल रहे थे ।

मिशन जिब्राल्टर की असफलता के बाद 5 अगस्त 1965 को लगभग 30,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने स्थानीय भेष भूषा मे नियत्रंण रेखा पार कर कश्मीर मे हमला बोल दिया । लेकिन युध्द मे भारतीय सेन ने हाजीपीर दर्रे पर अधिकार कर पाकिस्तान को एक बडा झटका दिया । इससे बौखलाए पाकिस्तान ने 1 सितंबर को मिशन ग्रैंड स्लैम के तहत फिर एक बडा हमला किया । चूंकि भारतीय सेना इसके लिए तैयार नही थी अत: इसमे नुकसान उठाना पडा ।

अब भारत ने हवाई हमले शुरू किए । पाकिस्तान ने भी पंजाब और श्रीनगर हवाई पट्टियों पर आक्र्मण किये । लेकिन शास्त्री जी ने कुछ भारतीय जनरलों की सलाह पर पंजाब सीमा पर एक नया मोर्चा खोलने का आदेश दे दिया । बस यहीं से युध्द मे भारत का पलडा भारी हो गया । पाकिस्तानी सेना को इस दिशा से हमले की बिल्कुल भी उम्मीद नही थी । यहां से भारतीय सेना सीधे लाहौर के दरवाजे पर दस्तक देने लगी । पाकिस्तान पूरी तरह पस्त हो गया । 22 सितंबर ,1965 को संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा समिति ने बिना शर्त युध्द विराम का प्रस्ताव पास किया और इस पर दोनो देश सहमत हो गये ।

इसी समय ताशकंद समझौता भी हुआ । इस समझौते के लिए अयूब खान तुरंत राजी हो गये । दरअसल युध्द मे अपनी खस्ता हालत से वह परिचित थे । उन्हें डर था कि यदि यह समझौता न हुआ तो भारत युध्द मे कब्जा किए गये क्षेत्रों को वापस नही करेगा । जमीनी सच्चाई भी यही थी कि भारत ने सियालकोट, लाहौर व कश्मीर के कई क्षेत्रों मे कब्जा कर लिया था । इस ताशकंद समझौते मे भारत को ही समझौता करना पडा व जीते हुए क्षेत्रों से पीछे हटना पडा । कुछ लोग यह मानते हैं कि शास्त्री जी जैसे सरल व उदार प्रधानमंत्री अंतराष्ट्रीय राजनीति के खुर्राट लोगों को न झेल सके तथा अनचाहे समझौता करना पडा था । कहा तो यहां तक जाता है कि इस समझौते का उन्हें इतना दुख हुआ कि हार्ट अटैक से उनका वहीं देहांत हो गया ।

यह ताशकंद समझौता क्यों करना पडा था इस पर हमेशा खामोशी की चादर पडी रही । देश मे इस स्मझौते की तीखी प्रतिक्रिया भी हुई थी । लेकिन शास्त्री जी के निधन के कारण बात दब सी गई । इसके अतिरिक्त आज भी यह समझ से परे है कि जिस समय युध्द विराम किया गया , भारत युध्द मे मजबूत स्थिति मे था । ऐसा क्या हुआ कि भारत को विजयी स्थिति मे युध्द विराम मानना पडा और फिर समझौते के तहत पीछे हटना पडा । तत्कालीन भारतीय सेना के कमांडरों को यह निर्णय् जरा भी अच्छा नही लगा था । आज भी इस विजय गाथा से जुडे यह महत्वपूर्ण पन्ने खामोश हैं । शास्त्री जी की असामयिक मौत, ताशकंद समझौता व युध्द विराम की सहमति , यह कुछ ऐसे पन्ने हैं जिनकी खामोशी पर 1965 युध्द से जुडे द्स्तावेज भी कुछ खास नही बोलते । बहरहाल इस युध को एक विजय गाथा के रूप मे याद किया जाता है और किया जाता रहेगा ।

Read Comments

    Post a comment