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गैर जरूरी मुद्दों मे उलझी राजनीति

यात्रा
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आजादी के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने देश के लिए जिस लोकतांत्रिक प्रणाली को अनुकूल माना उसमें उम्मीद की गई थी कि समय के साथ हमारा यह लोकतंत्र राजंनीतिक रूप से परिपक्व होता जायेगा । देश अपने सभी नीतिगत फैसले व अपनी समस्त राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक समस्याओं को संविधान के दायरे मे रह कर ही हल करेगा । इस तरह परिपक्व होता लोकतंत्र विकास की राह पर अग्रसर रहेगा । लेकिन आज इस राजनीतिक प्रणाली के तहत देश की जो दशा और दिशा है उसने कई गंभीर सवाल खडे कर दिये हैं । कहां तो उम्मीद की गई थी एक परिपक्व राजनीतिक परिवेश की और आज कहां सतही और गैरजरूरी मुद्दों तक सीमित रह गया है राजनीतिक चिंतन व सरोकार ।

इधर कुछ समय से संसद के अंदर और बाहर जिन मुद्दों पर बहस की जा रही है वह न सिर्फ गैर जरूरी हैं बल्कि अहितकारी भी हैं । इन अनावश्यक मुद्दों पर बहस को केन्द्रित करने का ही परिणाम है कि देश के विकास के लिए नीतिगत फैसले कहीं हाशिए पर आ गये हैं । चाहेअनचाहे इनकी उपेक्षा हो रही है । ऐसा सिर्फ संसद के बाहर या मीडिया वाक युध्द मे ही नही हो रहा बल्कि संसद के अंदर भी यही गैरजरूरी मुद्दे छाये हुए हैं । गौर करें तो पूरे मानसून सत्र की बलि या तो राजनीतिक हठ धर्मिता के कारण चढी या फिर अनावश्यक मुद्दों पर बहस के कारण ।

इधर फिर एक और मुद्दा चर्चा का विषय बना । महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय की धार्मिक भावनाओं को देखते हुए कुछ विशेष दिनों के लिए मांस की बिक्री पर प्रतिबंध क्या लगाया कि मानो आसमान सर पर गिर गया । राजस्थान सरकार ने भी इसी तर्ज पर जैन समुदाय के पर्युषण पर्व के अवसर पर मांस बिक्री पर रोक के आदेश पारित किये । इसके विरूध्द शिवसेना ने सडकों पर आकर विरोध दर्ज कराया । यही नही, इसके चलते जैन समुदाय के लिए ऐसा कुछ भी कहा गया जिसे अच्छा तो नही कहा जा सकता ।

मांस प्रतिबंध को लेकर की गई कुछ राजनीतिक दलों की यह घटिया राजनीति एक अकेला उदाहरण नही है । इसके पूर्व भी तमाम ऐसे मुद्दों पर माहौल गर्म रहा है जिनका देश के विकास से दूर दूर तक कोई रिश्ता ही नही था । अधिकांश ऐसे मामलों ने सामाजिक सौहार्द बिगाडने मे ही अपनी भूमिका निभाई । आज स्थिति यह है कि किसी सामाजिक मुद्दे पर सही संदर्भ व परिप्रेक्ष्य मे भी चर्चा की जाए तो जल्द ही उसका मूल चरित्र बिगाड कर तिल का ताड बनाने मे कोई विलंब नही होगा । ऐसी सोच ने कमोवेश प्र्त्येक राजनीतिक दल को अपनी गिरफ्त मे ले लिया है ।

आश्चर्य तो तब होता है जब कई बार गांवकस्बे स्तर के मुद्दे भी राष्ट्रीय बन जाते हैं । उनमें उलझ कर हमारे राजनेता संसद का कीमती वक्त बर्बाद करते हैं । दुखद तो यह है कि यह प्रवत्ति कम होने की बजाए बढती जा रही है । हमारे न्यूज चैनलों की गैरजिम्मेदार पत्रकारिता आग मे घी का काम कर रही है ।

इस प्रवत्ति का ही परिणाम है कि जिन मुद्दों व समस्याओं पर चर्चा व हंगामा किया जाना चाहिए वह कहीं किनारे हाशिए पर उपेक्षित पडे रहते हैं । अभी हाल मे दिल्ली मे एक् दपंति ने इसलिए आत्महत्या कर ली कि उनका बच्चा जो डेंगू से पीडित था समय पर इलाज न मिलने के कारण असमय काल का ग्रास बना । वह उस सदमे को न सहन कर सके तथा उन्होनें अपनी भी जीवन लीला समाप्त कर दी । इस दर्दनाक हादसे ने दिल्ली के निजी अस्पतालों के जिस अमानवीय चेहरे को उजागर किया है बहस और हंगामा उस पर किया जाना चाहिए । इस तरह की यह पहली घटना नही है । इसके कुछ ही दिन पूर्व दिल्ली के ही एक निजी अस्पताल ने परिजनों को एक शव इसलिए देने से इंकार कर दिया था कि भारी भरकम बिल के एक छोटे से हिस्से का भुगतान परिजन करने मे असमर्थ थे ।

इसी तरह शहरों व महानगरों मे बुजुर्गों की जिस तरह सरेआम हत्या कर लूट पाट की जा रही हैं, बहसचर्चा व हंगामा इस मुद्दे पर किया जाना चाहिए । लेकिन शायद ही कोई राजनीतिक दल इस पर शोर मचाता हो । यही नही जिस तरह बच्चों के अपहरण की घटनाएं बढ रही हैं तथा फिरौती के कारण उनकी ह्त्यायें की जा रही हैं , इस पर भी संसद के अंदर बहस की जानी चाहिए । आम आदमी की गाढी कमाई को जिस तरह से किस्म किस्म के हथकंडों से ठगा जा रहा है यह भी चर्चा का विषय बनना चाहिए । मुद्दे तो अनेक हैं लेकिन उन पर शायद राजनीति की रोटी नही सेकी जा सकती इसलिए खामोशी की एक चादर पडी रहती है । जरूरत है ऐसे मुद्दों पर मुखर होने की , सडक से लेकर ससंद तक । वोट बैंक और सुविधा की राजनीति के मोह से मुक्त हो ऐसी सोच कब विकसित होगी , पता नही । लेकिन होनी चाहिए ।

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