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देश की राजधानी दिल्ली | दिल वालों की दिल्ली | राजनेताओं की दिल्ली और कोमल दिल वाले लेखकों व कवियों की दिल्ली | लेकिन आज दिल्ली का यह चेहरा कहीं नही दिखाई दे रहा | जो दिखाई दे रहा है वह बिल्कुल अलग है | यहां हर आदमी इस दहशत मे कि न जाने कहां से और कब यमराज की सवारी निकल जाए | दिल्ली चलाने का दम भरने वाले भी बेदम और इंसानों के बीच भगवान समझे जाने वाले भी बेबस | यानी चहुं ओर निराशा का अंधेरा | एक तरफ़ दिल्ली वालों के दिल मे राज करने वाले केजरीवाल बदहवासी मे अस्पतालों की परिक्र्मा भर कर पा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ दिल्लीवासियों की बेरूखी से सत्ता सुख से वंचित ‘ जनसेवक ‘ एक पाखंडपूर्ण स्यापा का लाइव शो करते नही थक रहे | कैमरों के आगे का ‘ महाविलाप ‘ पिछ्ले सारे रिकार्ड तोड सकेगा, इसमे अब कोई संदेह नही रहा |
यही नही, मौत के ताडंव के बीच गैरजिम्मेदारी के आरोप-प्र्त्यारोप का खेल भी बदस्तूर जारी है | कभी गेंद इस पाले मे और कभी उस पाले में | कहां तो दिल्ली को वाई-फ़ाई बनाने की बात थी और कहां एक डेंगू के आगे बेबस और पस्त दिखती सरकार | अब ऐसे मे यह सोच पाना मुश्किल है कि अगर दिल्ली को वाई-फ़ाई कर भी दिया जाता तो क्या यह पराक्रमी डेंगू मच्छर नतमस्तक हो किसी कोने मे दुबके रहने मे ही अपनी भलाई समझ लेता ? या फ़िर दो चार हाथ करने के लिए मैदान मे ललकारता | और यदि गलती से भी वह ताल ठोकने का मन बना ही लेता तो क्या वाई फ़ाई दिल्ली उसे उसकी हैसियत बता पाती ? यह सवाल इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दिल्ली को लेकर सपनों की जो दुनिया दिखाई गई, उसमें डेंगू या उसके डंक से मरते हुए लोगों की तस्वीर कहीं नही थी |
आज मौत बांटते डेंगू की दिल्ली मे कभी एशियाड खेलों का भी परचम लहराया था और आज् भी दुनिया के तमाम बडे बडे खेल उत्सवों व राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जलसों के लिए दिल्ली दुल्हन की तरह सजती है | लेकिन एक मच्छर के भय से दिल्ली का चेहरा कभी इतना पीला भी पड सकता है, क्या कोई सोच सकता था | लेकिन आज उजाले के पीछे छिपे इस खौफ़नाक सच ने यह बता ही दिया कि कहीं कुछ बुनियादी गडबड जरूर है | इस तथा कथित विकास के उजाले पर भी एक सवालिया निशान लगा है | आखिर यह कैसा विकास है जिसे एक अदने से मच्छर ने बौना साबित कर दिया |
सवाल तो उन दावों पर भी लगा है जो दिल्ली की स्वास्थय सेवाओं और सुविधाओं को लेकर किए जाते रहे हैं | सवाल उन नामी अस्पतालों की शोहरत पर भी लगा है जिन पर दिल्ली इठ्लाती रही है | एक बडा सवाल इस बात पर भी कि क्या निजी अस्पतालों को मरते हुए लोगों से कोई सरोकार नही सिवाय इस बात के कि इस दहशत के माहौल मे वह अपनी तिजोरी कितनी भर सकते हैं |
जिस तरह का व्यवहार सुविधाओं से लैस इन निजी अस्पतालों ने दिखाया उसने सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर हम विकास को किस दिशा की ओर ले जा रहे हैं | कहीं ऐसा तो नही कि विकास के इस माडल मे आम आदमी के लिए कोई जगह ही नही बची | वरना और क्या कारण हो सकता है कि एक तरफ़ लोग ईलाज के लिए इनकी चौखट मे गुहार लगाते रहे और वहीं यह जेबों के भारीपन के हिसाब से मरीज को भर्ती करने या न क्ररने का फ़ैसला लेते रहे | सरकार इनकी इस बेरूखी पर नपुंसक गुस्से के प्रदर्शन के अलावा कुछ न कर सकी |
देखा जाए तो सवालों के घेरे मे हमारी पूरी व्यवस्था ही खडी है | यह वही व्यवस्था है जो आम जनता की सेहत के नाम पर संसद से करोडों रूपयों का बजट लाने मे तो सफ़ल हो जाती है लेकिन वह रूपये कहां और किधर चले जाते हैं, पता नही चलता | अस्पतालों मे दवा नही, डाक्टरों के पास सुविधाएं नहीं, बिस्तर डालने के लिए जगह नही | अब ऐसे मे बेचारे मरीजों को भगवान का भरोसा नही तो किस पर भरोसा करें ?
सच तो यह है कि दिल्ली मे दम तोडते मरीजों की अकाल मौतों के लिए डेंगू से ज्यादा जिम्मेदार है हमारी भ्र्ष्ट, लाचार, बेबस और उदासीन व्यवस्था | आज विकास और समृध्दि के तमाम हमारे दावे कटघरे मे खडे हैं | आखिर हम बुलैट ट्रेन और स्मार्ट सिटी के सपने कैसे देख सकते हैं जब एक मच्छर हमे लाचार और बेबस कर देता है | जरूरी है कि हमारे हुक्मरान इन सवालों से मुंह न चुराते हुए उन बुनियादी कारणों को समझें जो हमारी इस हालत के लिए जिम्मेदार हैं |
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