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सरकारी उदासीनता से जमींदोज होते सिनेमाघर

यात्रा
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old cinema haal

पिछ्ले तीन दशकों मे हमारी जिंदगी के साथ बहुत कुछ नया जुडा है । लेकिन ऐसा बहुत कुछ भी हमसे छूट गया है जिसका सदियों से हमसे जुडाव रहा है । जिंदगी से जुडी उन चीजों का यूं अलविदा कह देना कहीं न कहीं टीसता तो है ही । दर-असल बदले हुए दौर मे बढती समृध्दि और बाजार संस्कृति के बेतहाशा फैलाव ने जाने-अनजाने एक पीढी को  कुछ दर्द भी दिये हैं और शायद यह सिलसिला तब तक चलता रहेगा जब तक पुरानी यादों के कुछ खंडहर बाकी हैं ।
अभी पिछ्ले दिनों लखनऊ मे 79 साल पुराना  नावेल्टी सिनेमाहाल हमेशा के लिये बंद हो गया । इसके साथ ही इससे जुडी तमाम यादें बरबस ही उन दिनों मे खींच लायीं जब हम कालेज कट करके यहां सिनेमा देखने आया करते थे । चौराहे पर सीना ताने खडे एक हजार से भी ज्यादा सीटों वाले इस सिनेमाघर ने बहुत कम बार हमे मायूस किया होगा । हम टिक्ट का जुगाड यहां कर ही लिया करते थे ।
यहां न जाने कितनी फिल्में देखी । कुछ यादों मे जिंदा हैं और कुछ धुंधली पडती जा रही हैं । राजा और रंक, माधवी, दो रास्ते, यहूदी की लडकी, गंगा जमना, शराबी, मोहब्बतें, सिलसिला , बार्डर, बैडिंट क्वीन, शक्ति और भी तमाम इस सिनेमाघर मे देखी होंगी , कभी भीगते हुए तो कभी पसीने मे नहाये । आगे की सीटों मे बैठ कर पूरा आनंद उठाते । यह अलग बात है कि इतने नजदीक से कभी हीरो की नाक लंबी और कभी हिरोइन का मुंह टेढा दिखाई देता । बहरहाल अब वह पल इतिहास बन चुके हैं । यादों मे बसे शहर के तमाम सिनेमाघर् मेफेयर, बसंत, तुलसी,  प्रिंस, ओडियन, केपीटल, अलंकार्, नाज, मेहरा, हिंद, निशात, उमराव और भी  कई जिनसे मेरे बचपन व युवा दिनों की अनगिनत यादें जुडीं हैं हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं ।
लेकिन सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों का इस तरह बंद होते जाना सिर्फ एक शहर का दर्द नही, बल्कि कमोवेश यह पीडा देश के सभी छोटे बडे  शहरों की है । बढती बाजार संस्कृति और नये जीवन मूल्यों ने जिस माल  कल्चर और मल्टीफ्लैक्स को विकसित किया है उसमें इन पुराने सिनेमाघरों के लिए कोई जगह नही । लेकिन गौर से देखें तो यह सिनेमाहाल बदली हुई रूचियों के कारण नही बल्कि सरकार की उदासींनता और गलत नीतियों के कारण दम तोडने को मजबूर हैं । जिस प्रदेश मे 66 प्रतिशत मनोरंजन कर की नीति हो वहां भला यह सिंगल स्क्रीन सिनेमाघर कैसे अपने वजूद को बचाए रख सकते हैं ।
यही नही, जहां एक तरफ मल्टीफ्लैक्स के लिए अनुदान देने की  नीति है वहीं सरकार इन्हें बचाये रखने के लिए जरा भी उदारता दिखाने को तैयार नही दिखती । यही कारण है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य मे  70 प्रतिशत सिनेमाहाल बंद हो चुके हैं और कुछ बस नाम के लिए चल रहे हैं । इसमे कोई संदेह नही कि यदि सरकार इन्हें थोडी सी रियायत दे तो इनकी उजडती दुनिया फिर आबाद हो सकती है ।
यहां गौरतलब यह भी है कि   ऐसा भी नही है कि बढती चकाचौंध के इस दौर मे इनके लिए दर्शक ही न हों बल्कि एक बडा वर्ग आज भी इन सिनेमाघरों मे ही सिनेमा देखना पसंद करता है क्योंकि यहां उसे जो सहजता महसूस होती है वह मल्टीफ्लैक्स मे कहां । आखिरकार यह आम आदमी के सिनेमाघर  हैं जहां आज भी वह पचास-सौ रूपये मे सिनेमा देख अपने मन को खुश कर लेता है ।सरकार की इस बेरूखी का सबसे अधिक नुकसान छोटे शहरों को हो रहा है । यहां एक तरफ तो भारी भरकम मनोरंजन कर की दरों के कारण सिनेमाहाल बंद हो रहे हैं  और दूसरी तरफ आधुनिक्ता के प्रतीक मल्टीफ्लैक्स ने भी द्स्तक नही दी है । ऐसे मे इन छोटे शहरों के पास सिनेमा देखने का कोई साधन बचा ही नही ।
बहरहाल समय चाहे कितना ही बदल गया हो, एक पीढी की भावनाओं के तार इनसे जुडे हैं और उनकी यादों मे इनसे जुडे तमाम कहानी किस्से भी । इसलिए कोशिश की जानी चाहिए कि आधुंनिक मल्टीफ्लैक्स के बीच इनका भी अस्तित्व बना रहे ।

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