चाहे-अनचाहे या जाने -अनजाने मोदी सरकार की छवि कुछ इस प्रकार की भी बनती जा रही है जिसमे वह हमेशा एक कदम आगे और फिर दो कदम पीछे लौटती है । यहाँ सरकार के कामकाज मे एक अजीब विरोधाभास नजर आता है । एक तरफ तो वह कडे और स्थिर फैसले लेने की बात करती है वहीँ दूसरी तरफ अपने लिए गये फैसलोँ पर कुछ किंतु परंतु के साथ वह वहीँ लौट आती है जहां से चलती है । बार बार इस तरह पीछे हटने के कारण के कारण चाहे कुछ भी रहे हों लेकिन इससे अंतत: उसकी छवि ही प्रभावित हुई है । ऐसा किसी एक मुद्दे पर नही बल्कि कई मुद्दों पर सरकार को किरकिरी झेलनी पडी है ।
गौर करें तो अभी हाल मे इनक्रिप्शन नीति के मामले मे भी ऐसा ही हुआ । इस नीति के तहत जो मसौदा सरकार ने तैयार किया था उसमे यह निहित था कि लोग जिन संदेशों का विभिन्न माध्यमों के दवारा आदान प्रदान करेंगे उसे 90 दिन तक सुरक्षित रखना होगा । इस समयावधि से पहले संदेशों को मिटाना गैरकानूनी माना जायेगा । जैसे ही मसौदे को सार्वजनिक किया गया इसकी जनता के बीच तीखी प्रतिक्रिया हुई, जो स्वाभाविक ही थी । दर-असल इसे लोगों की निजी स्वतंत्रता पर हमले के रूप मे देखा गया ।
सोशल मीडिया सहित तमाम मंचों से सरकार के इस कदम की तीखी आलोचना हुई तथा विरोधी दलों को बैठे बैठाये एक मुद्दा मिल गया । दर-असल सरकार के इस अपरिपक्व कदम ने विरोधियों को यह प्रचारित करने का अवसर दिया कि सरकार लोगों की निजता पर हमला कर रही है । एक तरफ वह सोशल मीडिया के प्रसार की वकालत करती नही थकती वहीं दूसरी तरफ संदेशों पर पहरा लगाने से भी नही चूक रही । बहरहाल तीखी प्रतिक्रिया को देखते हुए सरकार को इसे वापस लेना पडा ।
यह पहला मामला नही था बल्कि इसके पूर्व भी कई मामलों मे सरकार को इसी तरह अपने कदम पीछे लेने पडे । बहुचर्चित भूमि अधिग्रहण कानून को भी यह त्रासदी झेलनी पडी और परिणामस्वरूप यह आज भी अधर मे है । इससे सरकार की काफी किरकिरी हुई है ।
महिलाओँ के प्रति बढते अपराधों व मीडिया तथा महिला संगठनों की कांव कांव का दवाब झेलने मे असमर्थ सरकार ने इंटरनेट पर अश्लील साइटों को लेकर कदम बढाया तथा ऐसी साइटों को तुंरत बंद कर देने के फरमान भी जारी कर दिये लेकिन जब सोशल मीडिया मे सरकार के इस कदम की आलोचना होने लगी तब सरकार ने चौबीस घंटे के अंदर इसे वापस ले लिया । दर-असल इस फैसले से लोग सरकार पर निजी जिंदगी मे तांक झांक करने तथा बेड रूम मे भी अपनी मर्जी लादने का आरोप लगाने लगे ।
इसी तरह नेट न्यूट्रिलिटी को लेकर भी सरकार को असहज स्थितियों का सामना करना पडा । उपभोक्ताओं तथा मीडिया मे हुई आलोचना को देखते हुए यहां भी यू टर्न लेना पडा । यही नही, करदाताओं की सुविधा के लिए आयकर रिटर्न भरने हेतु जिस फार्म की खूबियों को जोर शोर से प्रचारित किया गया वह भी न टिक सका । आम लोगों को यह ‘ सुविधाजनक फार्म ‘ कहीं ज्यादा असुविधाजनक महसूस हुआ । अंतत : यहां भी ‘ बैक टू पेविलियन ‘ होने को मजबूर होना पडा ।
यह सिलसिला कब खत्म होगा , पता नही । लेकिन यह तय है कि सरकार की ओर से इन कदमों की पहल व्यापक विचार विमर्श किये बिना और उसके प्रभावों को समझे बिना करने से उसकी छवि को नुकसान हुआ है । अच्छा तो यह होता कि पहले इन मुद्दों पर गहन विमर्श किया जाता और उसके प्रभावों तथा जनता की प्रतिक्रियाओं का अनुमान लगा कर निर्ण्य लिया जाता कि कदम उठाया जाना चाहिए या नही । अपरिपक्व विचारों को जल्दबाजी मे आगे रखने का ही परिणाम रहा है सरकार को बार बार पीछे हटना पडा । यह सिलसिला खत्म होना चाहिए अन्यथा ऐसे कदमों से सरकार की गंभीर छवि पर बचकानेपन की मुहर लगाने मे विपक्ष व मीडिया पीछे नही रहेगा ।
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