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आतंकवाद पर यह कैसी राजनीति

यात्रा
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रोज-ब-रोज होती आतंक की यह घटनाएं जहां एक तरफ मासूम लोगों को अकाल मृत्यु का ग्रास बना रही हैं वहीं दूसरी तरफ ऐसा प्रतीत होता है कि यह खबरें धीरे धीरे अपना संवेदन भी खोने लगी हैं और हमने इन्हें लाचारगी की स्थिति मे स्वीकार सा कर लिया है । दर-असल गौर से देखें तो विस्तार पाता यह आतंक विश्व बिरादरी के पाखंडपूर्ण व्यवहार व दिखावटी चिंताओं का भी परिणाम है । अतीत में जाएं तो दुनिया के तमाम देशों ने अपने राजनीतिक हितों के कारण न सिर्फ आतंकवाद को बढावा दिया बल्कि उसका उपयोग अपने हितों के लिए भी किया । सत्तर और अस्सी के दशक मे अपने शत्रु राष्ट्रों को कमजोर करने के लिए इसका उप्योग एक हथियार के रूप मे किया जाता रहा है ।
इस तरह एक तरफ आतंकवाद अपना पांव पसारता रहा वहीं दूसरी तरफ दुनिया के देश विधवा विलाप करते रहे तथा एक पाखंडपूर्ण चिंता भी जाहिर करते रहे । भारत के संदर्भ मे ही देखें तो पाकिस्तान और अमरीका दोनो देश जो अब आतंकवाद की हिट लिस्ट में शामिल हैं, राजनीतिक लाभ-हानि के हिसाब से आतंकवाद के विरोध मे बयानबाजी करते रहे हैं । जो आतंक भारत को घाव देता है वह ‘अच्छा ‘ है और जो पाकिस्तान को वह ‘ बुरा ‘ है । पाकिस्तान के इस दोमुंहे व्यवहार का ही परिणाम है कि आज दोनो देश आतंक से त्रस्त हैं । लेकिन भारत को अस्थिर करने वाले आतंकियों की पीठ थपथपाने मे वह आज भी पीछे नही ।
अमरीका जो दुनिया का सबसे बडा थानेदार है वह भी आतंक के मामले में अपनी पैंतरेबाजी मे कहीं पीछे नहीं ।बल्कि अतीत मे जांये तो आतंक को पोषित करने मे उसकी स्वयं की एक भूमिका रही है लेकिन अब  जब उस पर आतंकी हमला होता है तो वह पूरी दुनिया को गुहार लगाता है लेकिन जब भारत आहत होकर  उसकी तरफ से सहयोग की आस लगाता है तो उसके वादे राजनीतिक बयानबाजी तक सीमित होकर रह जाते हैं । यही नही आतंक को पोषित करने वाले पाकिस्तान पर डालरों की बरसात करने वाला अमरीका ही तो है ।
लगभग यही हाल दूसरे यूरोपीय देशों का भी रहा  है । आतंकवाद  को लेकर भी इस भेदभाव ने कम नुकसान नही पहुंचाया है । गौरतलब है कि  एशिया मे दुनिया की एक बडी ताकत चीन क्यों खामोश है । जापान की चुप्पी क्या कहती है । दर-असल दुनिया के वह देश जो अभी तक इस आग से अछूते हैं , वह मूकदर्शक बने रहने मे ही अपनी बेहतरी समझ रहे हैं । लेकिन जो इससे जूझ रहे हैं उन्हें दूसरों की सहायता की दरकार है । अगर पूरी दुनिया के देश आतंक के खिलाफ ईमानदारी से एक्जुट जो जाएं तो कोई कारण नही कि इसका सफाया न किया जा सके । लेकिन शायद इस ईमानदारी की कमी से ही यह नासूर बनता जा रहा है ।
यह भी सच है कि धर्म का लबादा ओढे इस आतंकवाद पर दुनिया के कुछ देश या तो खामोश हैं या फिर उनका मूक समर्थन । भारत मे ही देखें तो यहां आतंक्वाद के प्रति वह सख्त नजरिया कहीं नही दिखाई देता जिसकी इस देश को आज जरूरत है ।  भारत मे धर्मनिरपेक्षता का पाखंड ऐसा है कि वह जाने अनजाने आतंकवाद पर की जानी वाली चोट को ही कमजोर कर रहा है । पेरिस की आतंकी घटना के संदर्भ मे  आजम खां व मणिशंकर अय्यर जैसे नेताओं  का यह कहना कि  मुस्लिम समुदाय के साथ जैसा व्यवहार किया जा रहा है उसकी  प्रतिक्रिया मे पेरिस जैसी घटनाएं तो होंगी ही, एक अलग चेहरे को सामने लाती हैं । आखिर आतंक से जूझ रहे इस देश मे यह कैसी प्रतिक्रिया है और क्यों ?  आज इस पर सोचा जाना चाहिए ।
आतंक के इस दानव के बढते आकार के पीछे का एक कडवा सच यह भी है कि दुनिया के बहुत से  देश और लोग इसे सिर्फ धर्म विशेष के चश्मे से देख रहे हैं । कुछ को तो यह इस्लाम का प्रसार दिखाई दे रहा है । ऐसे मे उनका सहानुभूतिपूर्ण नजरिया आग मे घी  का काम कर रहा है । जरूरत तो इस बात की है कि इस्लाम को मानने वाले स्वयं आगे आयें और इस दानव की काली छाया से इस्लाम को मुक्त करें और दुनिया को बतांये कि यह मजहब किसी भी रूप मे हिंसा की इजाजत नही देता ।
इसमें कोई संदेह नही कि अगर आज दुनिया के सभी देश आतंक के खिलाफ ईमानदारी से आगे आएं तो यह खूनी खेल ज्यादा दिन नही टिक सकता । लेकिन राजनीतिक पैतरेबाजी, पूर्वाग्रह और पाखंड्पूर्ण सहानुभूति के कारण यह संभव नही हो पा रहा है । इसके लिए धर्म और देश की सीमाओं से परे होकर सोचना ही होगा । तभी आतंकवाद पर निर्णायक चोट संभव है ।

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