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महज मोमबत्तियों से दूर न होगा अंधेरा

यात्रा
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इधर कुछ समय से सामाजिक मुद्दों को लेकर भारतीय समाज मे एक अलग तरह की भावुकता दिखाई देने लगी है । भावनाओं का यह सैलाब जब तब अपने पूरे वेग के साथ आता है और जनमानस मे कुछ समय तक हलचल मचा कर कुछ इस तरह से विदा हो जाता है कि मानो कुछ हुआ ही नही । इस सैलाब के गुजर जाने के बाद कुछ भी शेष नही रह जाता । मामला चाहे निर्भया का हो या फिर अरूणा शानबाग का या  मणीपुर की चानू शर्मिला का अथवा समय समय पर होने वाली अमानवीय घटनाओं से उपजी संवेदनाओं का । सभी मे भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का स्वभाव व चरित्र कमोवेश एक जैसा रहा है ।
दर-असल इसे एक विडंबना ही कहेंगे कि जब तक कोई इंसान जिंदा रहता है उसके रोज-ब-रोज के संघर्षों की सुध लेना वाला कोई नही होता । एक दिन जब यकायक पता चलता है कि उसने उस व्यवस्था से लडते हुए जिंदगी से ही अलविदा कह दिया,  भावनाओं और आंसूओं का जो सागर उमडता है उसका कोई किनारा दिखाई नही देता । कुछ अपवाद छोड दें तो इस तरह के भावनात्मक विस्फोट का कोई विशेष प्रभाव सामाजिक-राजनीतिक तंत्र पर पडता दिखाई नही देता । कुछ दिनों की हलचल, बहस व चर्चाओं के बाद सबकुछ पहले की तरह ही चलने लगता है ।
अभी हाल मे निर्भया मामले मे नाबालिग अपराधी को जेल से छोडे जाने के मामले मे फिर वही नजारा देखने को मिला जैसा घटना के समय दिखाई दिया था । हजारों की भीड मोमबत्ती लेकर सडकों पर आ जाती है और पूरे जोश खरोश के साथ लचर प्रशासनिक व न्यायिक व्यवस्था का विरोध करती है लेकिन वहीं दूसरे दिन कुछ ऐसा भी देखने को मिलता है जो इन मोमबत्तियों पर सवालिया निशान लगा देता है ।
मोमबत्तियों के रूप मे समाज की यह संवेदना बेशक मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच कर वाही वाही लूटती है लेकिन जब दूसरे ही दिन दुष्कर्म की शिकार कोई लडकी बेसुध सडक किनारे सहायता की उम्मीद मे हाथ उठाती है तो उसकी तरफ देखने वाला कोई नही होता । गौर करें तो निर्भया मामले मे भी ऐसा ही हुआ था । सडक किनारे नग्न अवस्था मे भीषण ठंड के बीच वह सहायता की गुहार लगाते रहे लेकिन दिल्ली के वही लोग अनदेखा कर आगे बढते गये । किसी को उस लडकी व उसके मित्र की हालत पर दया नही आई । लेकिन दूसरे ही दिन वही लोग मोमबत्ती लेकर अपनी सहानुभूति व्यक्त कर रहे थे ।
बस या रेल के सफर मे जब कोई महिला या लडकी गुंडों के दवारा परेशान की जाती है तब सभी खामोशी से तमाशा देखते हैं । यही नही, भावनाओं के इस विस्फोट पर तब फिर एक सवालिया निशान लगता है जब कोई भी यात्री जिसमे महिलाएं भी शामिल हैं , किसी गर्भवती महिला को नीचे की बर्थ देने को तैयार नही होती  । अभी हाल मे गोरखधाम एक्सप्रेस की स्लीपर बोगी मे अकेली सफर कर रही गर्भवती महिला गीता देवी के साथ यही हुआ । उसने लाख विनती की लेकिन किसी ने भी उसे अपनी नीचे की बर्थ उपलब्ध नही कराई जब कि वह उस हालत मे ऊपर की बर्थ पर चढ पाने मे बेहद परेशानी महसूस कर रही थी । अंतत: एक रिटार्यट फौजी ने उसकी सहायता की तथा उसे अपनी बेटी की निचली बर्थ उपलब्ध कराई । आए दिन ऐसे अमानवीय द्र्श्य देखने को मिलते हैं ।
सवाल उठता है कि यह कैसी संवेदना है जो मोमबत्तियों के रूप मे तो जब तब दिखाई देती है और हमे भावविभोर कर देती है लेकिन जब उस संवेदना की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वह कहीं नही दिखाई देती ।
कहीं ऐसा तो नही कि ‘ सिस्टम ‘ और प्रशासन  को सारी बुराईयों की जड बता कर हम अपने को किनारा कर लेते हैं । लेकिन यह शायद ही कभी सोचते हों कि इस ‘ सिस्टम ‘ को चलाने वाले कहीं न कहीं हम ही हैं । अलग अलग चेहरों व चरित्र के रूप मे हम ही ‘ सिस्टम ‘ का सृजन करते हैं । बहरहाल स्वस्थ सामाजिक परिवेश के लिए जरूरी है कि हम भावुक होकर प्रतिक्रिया न करें अपितु बुराईयों को जड से समझने का प्रयास करें । हमारी क्षणिक भावुकता से ऐसी समस्याओं का अंत नही होने वाला । बुराइयों के विरूध्द हमारी भी भागीदारी बेहद जरूरी है ।

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