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अब कहां खो गया वह आक्रोश

यात्रा
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मूल्यविहीन वोट की राजनीति और सिर्फ अपने स्वार्थों तक सीमित रहने वाले समाज से किसी भी देश का हित संभव ही नही । गण्तंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस जैसे अवसरों पर बजाये जाने वाले देशप्रेम के गीतों से और सोशल साइटस पर शहीदों की अर्थी वाले फोटो चिपका कर जयहिंद लिख देने से देश का भला होना होता तो बहुत पहले हो चुका होता ।

पठानकोट आतंकी हमले से फिर वही भावनात्मक माहौल तैयार हो गया है जो अक्सर ऐसे हमलों के बाद हुआ करता है । राजनीतिक दलों के छिटपुट प्रदर्शन, बैनर और पोस्टरबाजी तथा सोशल साइटस पर भावपूर्ण लेख और फोटो । यह सिलसिला कुछ दिन तक चलता रहेगा और फिर सबकुछ भुला दिया जायेगा । मानो कुछ हुआ ही नही ।

लेकिन सवाल उठता है कि अब कहां है वह देशव्यापी आक्रोश, गुस्सा, तनी हुई मुट्ठियां और मोमबत्तियों का सैलाब जो दिल्ली एन सी आर मे होने वाले किसी द्ष्कर्म मामले मे सडकों पर फूट पडता है और इस सीमा तक कि सरकार , न्यायापालिका कानून बनाने और उसे सुधारने के लिए बाध्य हो जाए । रोजरोज शहीद हो रहे हमारे सैनिक और उठाई जा रही उनकी अर्थियां क्यों नही उस गुस्से को जन्म दे पा रही हैं जिसके आगे यह सरकार कुछ ठोस करने के लिए बाध्य हो ? अब क्यों नही न्यूज चैनल उस ताप को पैदा कर पा रहे हैं जो शुतुरमुर्ग की तरह रेत मे गर्दन दबाई भारत सरकार को गर्दन उठाने के लिए मजबूर करे ।

क्या अब उस भीड के सैलाब को यह पता नही कि हमारे सैनिकों के शहीद होने का एक बडा कारण यह है कि उनके पास वो हथियार ही नही जिससे आतंकवादियों का मुकाबला किया जा सके ।वह एक बेचारगी की मौत को गले लगाते हैं । क्या इनकी शहादतें उन्हें विचलित नही कर रहीं या फिर अपने हितों की सुरक्षा के लिए ही हमारी मुठ्ठियां तन कर आक्रोश का रूप लेती हैं ?हमारी बेटियों के साथ कुछ गलत न हो जो घरों से बाहर निकल चुकी हैं तथा कानून उनका रक्षक बन कर मुस्तैद खडा रहे, यह तो हम चाहते हैं । उनके हितों के लिए बनाए कानून इतने सख्त हों कि कोई अपराध करने का साहस न जुटा सके लेकिन जब देश की सुरक्षा का मुद्दा आता है तो मानो हमे कोई लेना देना नही । आखिर ऐसा क्यों ? यह सवाल बहुत बडा है ।

आतंकवादियों की गोलियों से शहीद हो रहे अपने सैनिकों की अर्थी को कंधा देने वाला देश किस लिए और क्यों महिला सशक्तिकरण का ढोल पीटते हुए देश की बेटियों को सीमा मे तैनाती की बात कर रहा है ? अपने शहीद पिताओं की अर्थी से लिपट कर विलाप करती बेटियों के आंसू क्या सवाल नही उठा रहे ? विलाप करती बेटियों की फोटो को दिखा कर भावनात्मक माहौल तैयार करना अगर जरूरी है तो उन सवालों पर क्यों खामोशी है ?

वोट की बेशर्म राजनीति इस देश को और क्या क्या दिन दिखाएगी , पता नही । लेकिन अपने हितों तक सीमित रहने वाली हमारी और आपकी सोच भी कटघरे मे है । अब अगर देश के सम्मान और अस्मिता के सवाल पर भी भीड का सैलाब सडकों पर नही, तो उसके लिए जिम्मेदार कौन , और क्यों नही ?

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