राष्ट्रविरोधी नारों से उपजी राजनीतिक कुश्ती अभी हाल फिलहाल खत्म होती नजर नही आती । विपक्षी दलों के नजरिये से देखें तो यह बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा है । इसके ठीक पहले रोहित बेमुला के मामले ने भी विपक्षी दलों को राजनीति करने का भरपूर अवसर दिया । राहुल गांधी से लेकर केजरीवाल तक रातों रात दलित हितों के बहुत बडे हिमायती बन कर सामने आए । भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों को भी आग मे हाथ सेंकना का एक अच्छा अवसर मिला । लेकिन इस राजनीतिक कुश्ती मे बुनियादी सवाल पीछे रह गये ।
अब जब देश के राजनीतिक दल जे.एन.यू मामले को लेकर पूरी तरह दो धडों मे बंटे दिखाई दे रहे हैं, सवाल उठता है कि इनके बीच देशहित का सवाल कहां खो गया । ऐसा नही है कि देश ने राष्ट्रविरोधी नारे लगाते छात्रों को टी.वी. के परदे पर नही देखा । बल्कि जिस तरह से उन्होने देश को तोडने और बर्बादी के नारे लगाए , उससे एक बार तो पूरा देश सकते मे आ गया । हर कोई हैरान था कि आखिर देश के इस प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थान मे यह क्या हो रहा है ।
लेकिन हमारे राजनीतिक दलों ने देश विरोधी इन नारों को लेकर एक ऐसी राजनीति शुरू की जिसमे राष्ट्रविरोध के स्वरों को कम आंका जाने लगा । कुतर्कों के दवारा पूरी तरह से यह साबित करने का प्रयास किया जाने लगा कि यह सत्तारूढ दल का भगवा एजेंडा है ।
यहां गौरतलब यह भी है कि राष्ट्रविरोधी नारों के नायक कन्हैया कुमार के बचाव मे जिस तरह वामपंथी व कांग्रेसी नेता खुल कर सामने आए, उसने यह साबित कर दिया कि अब देश मे राष्ट्रहित के सवाल गौढ और वोट बैंक की राजनीति प्रमुख हो गई है । कश्मीर की आजादी, आतंकवादियों का महिमा मंडन व भारत की बर्बादी के नारे भी हमारे कुछ राजनेताओं को राजनीति की लहलहाती फसल दिखाई दे रही है ।
अब इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि देश को चलाने वालों के लिए देश की एकता व अखंडता भी कोई विशेष मायने नही रखती । लेकिन आश्चर्य इस बात मे नही बल्कि हैरत की बात यह है कि राष्ट्रविरोधी इन राजनीतिक प्रयासों को जो व्यापक विरोध होना चाहिए , वह नजर नही आया । निर्भया मामले मे दिल्ली मे जिस तरह से लोगों का सैलाब सडक पर उतर कर अपने विरोध को अभिव्यक्त कर रहा था, उसका एक छोटा हिस्सा भी राष्ट्रविरोधियों के विरूध्द सडक पर नही दिखाई दिया । आखिर देशहित के मामले मे ऐसा क्यों नही हो पा रहा । इस पर भी सोचा जाना चाहिए ।
बहरहाल यहां यह भी गौरतलब है कि जे.एन.यू मे ऐसा पहली बार नही हुआ है । पिछ्ले कई वर्षों से यह राष्ट्रविरोधी गतिविधियों का केन्द्र बंनता रहा है । यहां हिंदु व राष्ट्रविरोधी कार्यक्रम समय समय पर आयोजित किए जाते रहे हैं । लेकिन केन्द्र मे कांग्रेस सरकार ने इसे कभी गंभीरता से लेने की जहमत नही उठाई । इसे यूं भी कहा जा सकता है कि इस पर कुछ न बोलना व करना ही अपने लिए सुविधाजनक समझा जाता रहा है ।
सत्ता मे भागीदार रहे वामद्लों को भी कांग्रेस की कमजोर , लचर सरकार से अपने एजेंडा को आगे बढाने का अवसर मिलता रहा । वामपंथ के नाम पर यह प्रतिष्ठित संस्थान कब देश विरोधी संस्थान के रूप मे तब्दील हो गया इसका आम जनता को आभास तक न हो सका । वैचारिक अभिव्यक्ति के नाम पर किस हद तक यहां जहर घोला जा चुका है इसकी जानकारी देश को पहली बार हुई है । वस्तुत: आज जो भी दिखाई दे रहा है इसकी जडें बहुत गहरी हैं ।
अब मोदी सरकार के सामने यह चुनौती है कि वह जे,एन.यू के इस चरित्र को बदले तथा इसे एक राष्ट्रविरोधी संस्थान के रूप मे विकसित न होने दे । अन्यथा यहां से इन विचारों को लेकर जो युवा बाहर आयेंगे उनकी सोच मे देश की एक अलग ही तस्वीर होगी । इसलिए अब बौध्दिक क्रियाकलापों के नाम पर देशविरोधी गतिविधियों पर पूरी तरह से अंकुश लगाये जाने की जरूरत है । यह संतोष की बात है कि इस मुद्दे पर आम आदमी देश के साथ है । अब यह सरकार के हाथ मे है कि वह इस जनसमर्थन को कैसे उपयोग मे लाती है और कुछ राजनीतिक दलों के देश विरोधी चेहरे को कैसे बेनकाब करती है ।
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