देश मे त्योहारों का मौसम यानी चहुं ओर उल्लास और खुशियां । लेकिन इन खुशियों के बीच ऐसा भी है जो त्योहारी उल्लास को डसने लगा है । मिलावट का जहर न सिर्फ मिठाईयों को अपनी गिरफ्त मे ले रहा है बल्कि अब तो आम दिनों मे भी खाने पीने की हर चीज मिलावटी हो गई है । यह मिलावट इस सीमा तक है कि जिंदगी ही खतरे मे पड गई है ।
अभी हाल मे सेंटर फार साइंस एंड एनवायर्मेंट ( सी.एस.ई ) ने दिल्ली शहर मे बिकने वाली जिन 38 प्रकार की ब्रेड का अध्ययन किया उन्हें इस्तेमाल के लिए खतरनाक पाया । इन ब्रेड को बनाने मे जिस पोटेशियम ब्रोमेट व पोटेशियम आयोडेट का इस्तेमाल किया जा रहा है वह कैंसर व थायराइड जैसी बिमारियों का कारण बन सकते हैं । सी.एस.ई. ने भारतीय खाध संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण से मांग की है वह ब्रेड मे इस्तेमाल हो रहे इन हानिकारक तत्वों पर तत्काल प्रतिबंध लगाए ।
वर्ष 1999 मे इंटरनेशनल एजेंसी फार रिसर्च आन कैंसर ने पोटेशियम ब्रोमेट व आयोडेट को कैंसर का कारक घोषित किया है । इसके बाद विश्व स्वास्थ संगठन की एक जांच रिपोर्ट के बाद ब्रिटेन, कनाडा , आष्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, चीन,श्रीलंका, ब्राजील , पेरू, नाइजीरिया और कोलंबिया मे इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया । भारत मे खाद्य सुरक्षा नियमों के तहत इसके इस्तेमाल पर अभी प्रतिबंध नही है ।
भारत मे मिलावट का बाजार इतना फैल चुका है कि उस पर पूरी तरह से प्रभावी नियंत्रण के लिए कडे कानूनों का बनाया जाना बेहद जरूरी है । आज देश मे स्थिति यह है कि जांच एजेंसियों की लापरवाही, संसाधनों का अभाव, भ्र्ष्टाचार, केन्द्र-राज्य मे सहयोग का अभाव व लचर दंड व्यवस्था का खामियाजा उपभोक्ता को चुकाना पड रहा है । कोढ पर खाज् यह कि मिलावटी चीजों के खाने से अगर कोई बीमार पड जाए तो दवाईयां भी नकली बिक रही हैं । यानी बचने का कोई रास्ता नही ।
देश मे शायद ही ऐसी कोई चीज हो जिसमे मिलावट न हो । मिठाइयों मे इस्तेमाल किये जाने वाला खोया शायद ही कहीं असली मिले । इसमे न जाने कितने प्रकार की मिलावट करके इससे मिठाई तैयार कर ली जाती है । छैना भी दूध का नही बल्कि सिंथेटिक चीजों से तैयार किया जाता है । जो रंग मिठाईयों मे प्रयोग किये जाते हैं वह कैंसर का एक बडा कारण हैं । लेकिन यह सबकुछ धडल्ले से चल रहा है । त्योहारों के अवसर पर जब रस्मी तौर पर दुकानों मे छापामारी करके सैंपल लेकर उनकी जांच की जाती है तो भयावह सच्चाई सामने आती है । थोडा बहुत शोर मचने के बाद फिर सबकुछ पहले जैसा हो जाता है ।
दूध जैसी जरूरी चीज मे यूरिया, डिटर्जेट, सोडा, पोस्टर कलर, रिफाइंड तेल की मिलावट की जा रही है । उत्तर प्र्देश व बिहार जैसे राज्यों मे बडे पैमाने पर दूध मे मिलावट की जाती है । कई बार बडे पैमाने पर सिथेटिक दूध बनाने के धंधे का पर्दाफाश भी हुआ लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात ।
खाद्य तेलों मे आर्जीमोन व सस्ता पाम आयल की मिलावट तथा देशी घी मे वनस्पति घी का घालमेल आम बात है । यही नही फल सब्जी भी मिलावट से मुक्त नही हैं । इनमे चटक रंग के लिए रासायनिक इंजेक्शन, ताजा दिखने के लिए लेड और कापर घोल का छिडकाव किया जा रहा है । लोग जानते हुए भी इन फल सब्जी के इस्तेमाल के लिए बाध्य हैं । दालों मे भी कम मिलावट नही । चना व अरहर की दाल मे खेसारी दाल, बेसन मे मक्का के आटे की मिलावट अब कोई नई बात नही रही । मसालों मे भी मिलावट का ग्रहण लग चुका है । मिर्च पाउडर मे ईंट का चूरा, हल्दी मे लेड क्रोमेट व पीली मिट्टी, धनिया मे लकडी का बुरादा ,काली मिर्च मे पपीते के बीज मिला कर देश भर मे बेचा जा रहा है ।
अभी हाल मे नेस्ले कंपनी दवारा बनाई मैगी पर गुणवत्ता के सवाल उठे।काफी हो हल्ला मचने और संसद मे बहस होने पर यह बात महसूस की गई कि देश मे खाद्य सुरक्षा की प्रकिया काफी लचीली है । कंपनियां खाद्य मानकों का पालन नही करतीं । एक प्रश्न के उत्तर मे केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री को कहना पडा कि इसके लिए ” दंड विहीन कानून ” जिम्मेदार है ।
मिलावट की रोकथाम के लिए मुख्य रूप से 1954 का खाद्य पदर्थ अपमिश्र्ण निषेध अधिनियम रहा है । लेकिन यह ढीला ढाला व बेअसर साबित हुआ । वर्ष 2011 मे नये कानून के साथ भारतीय खाद्य सुरक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाने की कोशिश की गई है । हालांकि यह 2006 मे ही संसद दवारा पारित कर दिया गया था पर लागू होने मे 5 साल का समय् लगा । इसमें उत्पादकों दवारा भ्रामक व गलत सूचनाएं व विज्ञापन देने पर भी रोक है । इस कानून मे पूर्ववर्ती कानूनों को समाहित कर दिया गया है ।
दरअसल मिलावट को लेकर देश मे एक बडी रूकावट लोगों की सोच मे जागरूकता का अभाव है । हमारे देश मे मिलावट को लेकर वह प्रतिक्रिया नही होती जो दूसरे देशों मे दिखाई देती है । इसे बहुत सामान्य मान लिया गया है । अगर कभी कुछ मामले सामने आते भी हैं तो कानून इतने लचर हैं कि उससे दोषी व्यक्तियों या उत्पादक कंपनियों का कोई विशेष नुकसान नही होता । नामात्र का आर्थिक दंड व दो चार माह की सजा । सिर्फ चीन ऐसा देश है जहां मिलावट करने वालों को फांसी तक चढाया गया है । देखा जाए तो यह भय जरूरी भी है । लेकिन हमारे देश मे यह डर सिरे से नदारत है ।
वैसे तो मिलावट की रोकथाम के लिए हर राज्य मे सरकारी विभाग हैं लेकिन न तो कर्मचारियों की संख्या प्रर्याप्त है न ही जांच प्रयोगशालाओं की पूरी सुविधा है । खाद्य प्रयोगशालाओं की संख्या सिर्फ 72 है । जबकि चीन मे प्रति 2 लाख आबादी पर एक प्रयोगशाला है । यही नही देश मे भ्र्ष्टाचार की जडें इतनी गहरी हैं कि मिलावट के रक्षक ही अक्सर भक्षकों से मिले दिखाई देते हैं । गौरतलब यह भी है कि बहुधा राज्य सरकारें मिलावट को गंभीरता से नही लेतीं। केन्द्र और राज्यों सरकारों मे कोई तालमेल नही दिखाई देता । ऐसे मे मिलावटखोरों को अपनी कारगुजारियों के लिए पूरा अनुकूल माहौल मिल जाता है
एक और बडी अडचन यह है कि देश मे एक लाबी ऐसी भी है जो विदेशी कंपनियों के पक्ष मे खडी दिखाई देती है । यह लोग विदेशी पूंजी व रोजगार का तर्क देकर सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के प्रयास मे रहते हैं । जबकि गौर करें तो यही कंपनियां यूरोप मे तो तय मानकों का पालन करती हैं लेकिन भारत मे नही । बहरहाल इधर मिलावट को लेकर देश मे जागरूकता दिखाई देने लगी है और लोग मिलावट के जहर के व्यापक प्रभाव को भी समझने लगे हैं । जरूरी है सरकारें भी इस पहलू को गंभीरता से लेकर मिलावट करने वालों के लिए सख्त सजा का कानून बनाए । सजा का भय ही इस जहर को रोकने मे काफी हद तक कारगर सिध्द होगा ।
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