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सच के गवाह नही बनते सरकारी आयोजन / लखनऊ महोत्सव

यात्रा
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Lucknow oldकभी गोमती के किनारे बसा तहजीब का एक शहर था लखनऊ । नवाबों की नगरी, बागीचों का शहर लखनऊ | नवाबी काल मे अवध की राजधानी का अपना एक अलग चेहरा था परंतु एक महानगर में तब्दील होते इस शहर मे अब सब कुछ खडंहर व उजाड मे बदलने लगा है ।

अब लखनऊ नवाबों की नगरी नहीं, बल्कि ” साहबों ” और ” बाबूओं ” का शहर है । हजरतगंज जैसे आधुनिक बाजार में अब इक्के तांगे नहीं बल्कि चमचमाती कारें नई संस्कृति की पहचान स्वरूप दौडती दिख जायेंगी । इक्के-तांगों का तो य्हां आना वैसी

भी सरकारी रूप से वर्जित हो चुका है | नई हवा के प्रतीक आलीशान माल अब इस शहर की पहचान बन रहे हैं | यहां आपको सुनाई देगी अंग्रेजी की गिटर-पिटर और मेक-अप से लिपेपुते चेहरे | जिन्हें न तो तहजीब से कोई लेना देना है और न ही इस शहर की विरासत से |

कभी अवध की शाम का एक अलग ही रंग हुआ करता था जिसमे इत्र की महक और घुंघरूओं की झंकार सुनाई देती थी | अब इस शाम का मतलब है ” हजरतगंज की गंजिग ” | जहां फ़ैशनेबुल लडकी-लडकियों के झुंड बेतरतीब, बेमतलब घूमते नजर आते हैं | लखनऊ की तहजीब का जनाजा उठता यहां देखा जा सक्ता है |

‘ पहले मैं ‘ मे तब्दील हो रहा है ‘ पहले आप ‘ का शहर | जिस आत्मीयता और सलीके का दुनिया मे कोई सानी नही था अब उसकी जगह है स्वार्थपरता और कपटपूर्ण व्यवहार | वह सादगी और सहजता गये दौर की बातें बन कर रह गई हैं

शहर की मुख्य सडकों के पीछे छोटी संकरी सडकों के खुले मेनहोल किसी भी आने-जाने वालों का स्वागत करने के लिए तैयार मिलेंगे | सडकों के किनारों और उनके बगल से निकलती नालियों मे दुर्गंध इतनी कि रूमाल नाक पर रखे बिना चलना दूभर हो जाए |

बागों के इस शहर का हरियाली से भी एक रिश्ता रहा है लेकिन अब हरियाली को निगल रहा है कंक्रीट का जंगल | पुराने ऐतिहासिक बागों का कोई पुरसाहाल नहीं | कई पुराने बाग तो न जाने कब दफ़न हो चुके हैं | कुछ बाग दिख जायेंगे लेकिन यहां भी सूखे पेड, मुरझाये फ़ूल और टूटे हुए झूले ही दिखाई देंगे | वैसे शहर को सुदंर बनाने के लिए जहां तहां नये बागों को विकसित करने का सिलसिला अब भी जारी है | लेकिन ये सैरगाह नहीं, असमाजिक तत्वों के अड्डे बन कर रह गये हैं | कोढ पर खाज यह कि आम आदमी को इनके अंदर आने के लिए भी टिकट लेना पडता है | यानी पैसा नही तो आपके लिए बाग का कोई मतलब नही |

शहर को आधुनिक बनाने के लिए बहुमंजिली इमारतों के निर्माण का सिलसिला अभी रूका नही है | परंतु इन सुंदर इमारतों के अंदर दीवारों पर जगह-जगह पान की पीक यहां की नई तहजीब के प्रमाण्स्वरूप नजर आयेंगे | समाजवादी व्यवस्था के गवाह के रूप मे इन आलीशान इमारतों के पीछे झुग्गियों की कतारें कभी भी देखी जा सकती हैं | यहां इनकी भी एक दुनिया है जो तेजी से बस रही है |

यह अब मंत्रियों, विधायकों तथा हडतालों व जुलूसों का भी शहर है | गांव-कस्बों से रोज यहां भीड उमडती है लेकिन शहर का वह मिजाज अब नहीं रहा | मंत्री जी या विधायक जी से अप्नी दुख दर्द की दास्तान कहने के लिए यहां वह तरस जाता है | अंत मे दलालों व छुटभैय्यों नेताओं दवारा दिखाये गये सब्जबाग भी सूखने लगते हैं और ये बेचारे वापस लौट जाते हैं अपने गांव , अपने शहर में | सच कितना बेदर्द हो गया है यह शहर|

कभी मेह्मान नवाजी के लिए भी लखनऊ दूर दूर तक जाना जाता था | कहा जाता है कि लखनऊ का वाशिंदा स्वयं तो चने खायेगा लेकिन मेहमान या दोस्त को झट काजू, किशमिश पेश करेगा | लेकिन अब शहर आये मेहमानों का लूट ख्सोट आम हो गई है | सरकारी कार्यालय के बाबू बिना ‘ सुविधा शुल्क ‘ कुछ करने को तैयार नही | यह बेरूखी व गैरपन अब शहर की मेहमाननवाजी का अंग बन गया है | बाहर से आये मेहमान को आश्चर्य होता है कि किताबों मे पढा, वह शहर क्या यही है | या फ़िर गलत जमीन पर उस शहर को तलाश रहा है |

वैसे तो बदलाव प्र्कृति का चक्र है | कुछ भी हमेशा एक सा नही रहता | लेकिन किसी दौर विशेष की यादों को सहेजना, समेटना भी जरूरी है | इसी सहेजना का एक प्रयास रहा है ‘ लखनऊ महोत्सव ‘ | जिसकी शुरूआत 1974 मे हुई थी लेकिन आज तक यह महोत्सव अपने उस मकसद से कोसों दूर दिखाई देता है | व्यावसायिक भोंडापन तक सीमित होकर रह गया है यह उत्सव | लखनऊ की तहजीब, व अवध की सोंधी महक से इस उत्सव का कोई रिश्ता आज तक नहीं बन पाया है |

नौकरशाही के दबदबे के नीचे आयोजित किए जाने वाले इस महोत्सव की इतनी भी पह्चान नही बन पाई है देश-विदेश के पर्यटक यहां आयें | जबकि दूसरी तरफ़ मरू महोत्सव, खजुराहो महोत्सव व सूरजकुंड महोत्सव अपनी पुख्ता पहचान बना पाने मे सफ़ल रहे हैं | यह महोत्सव देसी पर्यटकों के साथ विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करते हैं |

दर-असल इसके चरित्र को देखते हुए तो ऐसा प्रतीत होता है कि इस उत्सव का असली मक्सद अवध की तहजीब के नाम पर स्टाल लगा कर तहजीब व लखनवी कला तथा व्यजनों को बेचना ्भर  है | संस्कृति का इससे कोई रिश्ता बनता दिखाई नही देता | रही सही कसर पूरी कर देते हैं यहां आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम | इनमे देश के नामी गिरामी महंगे कलाकारों को बुला कर जनता की वाही वाही लुटी जाती है | अवध के लोक नृत्यों व संगीत की सुध लेने वाला कोई नही | अवधी भक्ति संगीत, शास्त्रीय संगीत, धोबिया नृत्य , स्वांग और नौटंकी इन्हें नही याद आती | कभी कधार खाना पूरी का प्र्यासभर होता है | वह भी सतही |

पटेबाजी या लठ्ट्बाजी कभी यहां की पहचान थी | यह अपने दुश्मनों से निपटने की ऐसी कला थी कि एक अच्छा पटाबाज कई कई लोगों से अकेले लोहा ले सक्ता था | लेकिन जरा से चूके तो बस | लेकिन यह कहां गुम हो गई, पता नहीं | अलबत्ता गली गली कुकरमुत्तों की तरह जूडो-कराटे सिखाने और ‘ सिक्स पैक ‘ बनाने की दुकानें जरूर खुल गई हैं |

किन्नरों ( हिजडों ) का भी नवाबी काल मे एक अलग मह्त्व रहा है | इनके विचित्र रस्मो-रिवाज कहानी किस्सों मे आज भी मौजूद हैं | क्भी लखनऊ के ऐशबाग मे इन हिजडों का एक अनोखा मेला भी लगता था | इसे ‘ अलौला का मेला ‘ कहा जाता था | इसकी परंपरा नवाबी काल से रही है | इसमे बहुत बडी संख्या मे हिजडे शरीक हुआ करते थे | अभी हाल के वर्षों तक यह किसी तरह अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए जद्दोजहद कर रहा था लेकिन इधर यह भी इतिहास मे दफ़न हो गया | किसी न किसी रूप मे किन्नरों के इस मेले व उनकी नवाबी दौर की जिंदगी को मेले से जोडा जा सकता है जिससे नई पीढी इनके बारे मे भी समझ सकें लेकिन ऐसा विचार कोसों दूर है

बहरहाल मानवीय संवेदनाओं का कब्रगाह बनता यह शहर फ़िर भी कुछ अलग तो है ही | आज भी यह एक पीढी के दिलो दिमाग मे धडकता है | लेकिन सच यह भी है कि हर साल आयोजित किए जाने वाला ‘ लखनऊ महोत्सव ‘ उन यादों को  समेटने व सहेजने मे कहीं से भी सफ़ल होता नहीं दिखता | हर संवेदनशील लखनऊ का वाशिंदा इस बात से कहीं चिंतित है कि नई पीढी बीते दौर के उस लखनऊ को महसूस भी करे तो आखिर कैसे |

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